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अनेकान्तवाद की प्रासंगिकता
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मानसिक तनाव के बढ़ने के लिए कुछ कारण इस प्रकार हैं(१) हमारा एकांतवादी दृष्टिकोण । (२) हमारी आशाओं के विपरीत घटनाओं का घटित होना। (३) गहरी निराशा का प्रसंग। (४) हमारे अपने ही लोगों से प्रवंचना। (५) दुनियाँ की विचित्रता के प्रति असहिष्णुता।
इन सब के निवारण के लिए अनेकांतवादी बन जाना अधिक श्रेयष्कर है। सुख-दुःख, शीत-उष्ण, मान-अपमान, क्रोध-संतोष आदि को समानरूप से स्वीकार करने वाला स्थितप्रज्ञ सब कुछ सहन कर सकता है।
दुनियाँ में सब प्रकार के प्राणियों को अपनी-अपनी स्थिति में जीते रहने का अधिकार है- इस तथ्य को स्वीकार करेंगे तभी ‘सहनशील' बन सकते हैं।
'सहनशीलता' या सहिष्णुता अनेकान्तवाद की पहली शर्त है- यदि हममें सहिष्णुता आ जाए तो हम बड़ी आसानी से निराशा, प्रवंचनादि से जनित मानसिक तनाव का व्यवस्थापन कर लेने में समर्थ बन सकेंगे। जैन धर्म एवं अनेकान्तवाद
"कर्मारीत् जयतीति जिनः।' - कर्मरूपी शत्रुओं को जीतनेवाले को 'जिन' कहते हैं। इन जिनों पर जो विश्वास, आस्था, श्रद्धा, भक्ति, एवं सम्मान की भावना रखते हैं उनको 'जैन' कहते हैं। वास्तव में जैनधर्म एक ऐसा धर्म है जो अनेकता में एकता पर बल देता है। जैनधर्म की धर्म सम्बन्धी अपनी मान्यताएं हैं। जैनधर्म जाति, कुल, गोत्र आदि से ऊपर है। उसकी मान्यता है कि जन्म से नीच कुल या निम्नवर्ग का आदमी होने पर भी अगर वह सम्यक्-दर्शन संपन्न हो तो देवताओं के समान गौरव पाने लायक बन जायेगा । यहाँ कितनी उदात्तभावना की अभिव्यक्ति है।
मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य यदि इस विश्व की विभिन्न बाधाओं से छुटकारा पाना है तो उसके लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, एवं सम्यक्चारित्र-इन तीनों के समन्वय के पथ पर चलना होगा।
__ हमारे भविष्य एवं पुनर्जन्म की दशा व दिशा हमारी मट्ठी में है जो हमारे कर्मों पर निर्भर है। धार्मिक सहिष्णुता जैन धर्म की घुट्टी में है।
इस जग में अनेकों नाम से भगवान की आराधना की जाती है। परंतु जैनधर्म अनेकान्तवादी भावना का अनुष्ठान करते हुए कहता है
बुद्धस्त्वमेव विवुधार्चितबुद्धिबोधात् । त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात् ।।
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