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राष्ट्रीयता का सजग प्रहरी अनेकान्त
डॉ० नरेन्द्र कुमार जैन
राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को क्रमश: अनेकान्त, अनेकान्तता और अनेकान्तवाद के रूप में विवेचित कर सकते हैं। राष्ट्र अनेक भाषाओं, जातियों, धर्मों, संस्कृतियों, वर्णों, सम्प्रदायों आदि का समवेत रूप है। इन विभिन्नताओं से जन्य राष्ट्रीयता का राष्ट्र के साथ समवाय सम्बन्ध है। स्वतन्त्र या अलग राष्ट्र के रूप में उसकी कोई पहचान नहीं बन सकती। विभिन्न संस्कृतियों, जातियों, धर्मों आदि से रहित राष्ट्र की सत्ता नहीं। किसी एक की सत्ता का अपलाप भी राष्ट्र नहीं। उनका समवेतत्व ही उनका राष्ट्रीयत्व है और जो राष्ट्रीयत्व को धारण करता है वह उसकी राष्ट्रीयता है। राष्ट्र के ऐसे स्वरूप का प्रतिपादन करना राष्ट्रवाद है।
__ एक समय था जब एक समान भाषा, एक धर्म, एक संस्कृति और एक समाज को राष्ट्रीयता का प्रतीक माना जाता था। अब बदली हुई परिस्थितियों में इस प्रकार की विचारधारा की प्रासंगिकता नजर नहीं आती। वर्तमान सन्दर्भ में राष्ट्र देश के पर्याय बन गये हैं। एक ही देश में विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति एवं भाषा के लोग एक साथ रहते हैं। उनकी एक ही राष्ट्र में पूर्ण आस्था होती है तथा अनेकता में एकता का दर्शन होना उनकी राष्ट्रीयता है।
“अनेक” और “अन्त" इन दो शब्दों से मिलकर अनेकान्त बना है। अनेक का अर्थ एक से अधिक है और अन्त का अर्थ गुण या धर्म होता है। प्रत्येक वस्तु का स्वभाव अनेकान्तात्मक होता है। अनेकान्त ऐसी दृष्टि है जिसके अनुसार परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हुई शक्तियां भी एक साथ बिना किसी टकराहट के रह सकती हैं। एक राष्ट्र में भी परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म-सम्प्रदाय, वर्ण, जातियाँ एवं संस्कृतियां एक साथ रह सकते हैं। भारत देश में हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध, ईसाई, सिक्ख आदि अनेक धर्मों के लोग रहते हैं। सभी मानव प्रजाति के हैं। सुख-दु:ख आदि सभी
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