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सप्तभंगी बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में
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इनमें भी मुख्य रूप से दो ही प्रारूपों को माना जा सकता है- एक वह है, जिसमें स्यात् पद चर है। जिसके कारण अपेक्षा बदलती रहती है। यदि चर रूप स्यात् पद को Pl, P2 आदि से दर्शाया जाये, तो अस्ति और नास्ति भंग का निम्नलिखित रूप बनेगा
(१) स्यादस्ति = Pl (A)
(२) स्यान्नास्ति = P2 (~A) इसे निम्नलिखित दृष्टान्त से अच्छी तरह समझाया जा सकता है- स्यात् आत्मा नित्य है (प्रथम भंग) और स्यात् आत्मा नित्य नहीं है (द्वितीय भंग), इन दोनों कथनों में द्रव्यत्व दृष्टि से आत्मा को नित्य कहा गया है, वहीं दूसरे भंग में पर्यायदृष्टि से उसे अनित्य (नित्य नहीं) कहा गया है। इन दोनों ही वाक्यों का स्वरूप यथार्थ है; क्योंकि आत्मा द्रव्य दृष्टि से नित्य है, तो पर्याय दृष्टि से अनित्य भी है। वस्तुत: यहाँ द्वितीय भंग का प्रारूप निषेध रूप होगा। अब यदि उक्त दोनों भंगों को मूल भंग माना जाय और अवक्तव्य को ~ C से दर्शाया जाये तो सप्तभंगी का प्रतीकात्मक प्रारूप निम्मलिखित रूप से तैयार होगा(१) स्यादस्ति
= P (A) (२) स्यान्नास्ति
= P2 (~A) (३) स्यादस्ति च नास्ति
= P (A. ~A) (४) स्यादवक्तव्य
= P (C) (५) स्यादस्ति च अवक्तव्यम्
= P (A.~ C) (६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम्
= P (~A. ~C) (७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् = P7 (A. ~A. ~C)
अब प्रश्न यह है कि अवक्तव्य को (~C) से क्यों प्रदर्शित किया गया है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अवक्तव्य, वक्तव्य पद का निषेधक है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में किसी निषेध पद को विधायक प्रतीक से दर्शाने का विधान नहीं है। वहां पहले विधायक पद को विधायक प्रतीक से दर्शाकर निषेधात्मक बोध हेतु उस विधायक पद का निषेध किया जाता है। इसलिए पहले वक्तव्य पद हेतु प्रतीक को प्रस्तुत कर अवक्तव्य के बोध के लिए उस C का निषेध अर्थात् ~C किया गया है। अब यदि यह कहा जाय कि ऐसा मानने से सप्तभंगी-सप्तभंगी नहीं बल्कि अष्टभंगी बन जायेगी, तो ऐसी बात मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि जैन तर्क शास्त्र में सप्तभंगी की ही परिकल्पना है, अष्टभंगी की नहीं; और वक्तव्य रूप भंग सप्तभंगी में इसलिए भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि अवक्तव्य के अतिरिक्त शेष भंग तो वक्तव्य ही हैं। अर्थात् वक्तव्यता का बोध सप्तभंगी के शेष भंगों से होता है। इसलिए वक्तव्य भंग को
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