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Multi-dimensional Application of Anekantavāda
की एक विशिष्ट शैली है। इसके कुछ भंग तो अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित रहे हैं। यहाँ तक कि प्राचीन जैन, बौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों में भी इसके कुछ भंगों का उल्लेख मिलता है। हाँ, यह बात अवश्य सत्य है कि सप्तभंगी के सातों भंगों का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है। परन्तु यह कहना नितान्त निर्मूल है कि उसके किसी भी भंग का उल्लेख प्राचीन आगम ग्रन्थों में नहीं है । सप्तभंगी के कुछ भंगों का उल्लेख वैदिक ग्रन्थों में भी है। जैन आचार्यों ने उन भंगों में कुछ और भंगों का जोड़ कर मात्र उनका विस्तार किया है। सप्तभंगी के मूल भंग वैदिक एवं बौद्ध ग्रन्थों में भी उपलब्ध हैं। किसी भी वस्तु के विषय में कथन के लिए मुख्य रूप से दो ही पक्ष होते हैं- प्रथम विधि पक्ष और दूसरा निषेध पक्ष । ये दोनों ही पक्ष एक ही वस्तु में एक साथ अपेक्षा भेद से विद्यमान रहते हैं; क्योंकि किसी वस्तु के विषय में एक पक्ष से कोई कथन किया जाता है तो दूसरा पक्ष भी उसी के साथ उपस्थित हो जाता है। जब हम किसी वस्तु के विषय में किसी गुण-धर्म का स्वीकारात्मक कथन करते हैं तो उसका प्रतिपक्षी निषेध पक्ष भी स्वाभाविक रूप से आ ही जाता है। उदाहरणार्थ जब हम कहते हैं कि अमुक वस्तु लाल है तो यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि वह हरी या पीली आदि नहीं है। इस प्रकार ये दोनों पक्ष ( अस्ति - नास्ति ) एक ही वस्तु में सदैव साथसाथ विद्यमान रहते हैं। विधि-निषेध इन दोनों पक्षों के उपस्थित होने पर समन्वय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यदि दोनों पक्ष समन्वयकर्ता के समक्ष उपस्थित न हों तो उनमें समन्वय हो ही नहीं सकता। अतः समन्वय के लिए इन दोनों पक्षों का होना आवश्यक है। इस प्रकार विधि एवं निषेध के इन दो पक्षों से सप्तभंगी की विकास यात्रा शुरू होती है।
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परन्तु यहाँ हमारा उद्देश्य सप्तभंगी का विकास बताना नहीं है बल्कि हमारा उद्देश्य आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में उसकी सप्तमूल्यात्मकता निर्धारित करना है । किन्तु इस प्रसंग में सप्तभंगी के प्रत्येक भंग का संक्षिप्त परिचय देना यहाँ अप्रासंगिक न होगा। सप्तभंगी के सातों भागों का प्रारूप निम्न प्रकार है
१) स्यादस्ति
२) स्यान्नास्ति
३) स्यादस्ति च नास्ति
४) स्यात् अवक्तव्य
५) स्यादस्ति च अवक्तव्य
६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्य
७) स्यादस्ति स्यान्नास्ति च अवक्तव्य
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