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अनेकान्तवाद का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग
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सम्पूर्ण प्रक्रिया के बहुत थोड़े से अंश को जान पाया है। समस्त प्रक्रिया को जानना तो बहुत दूर की बात है, उसके निकट पहुंचने की सामर्थ्य भी उसमें नहीं है। एक परमाणु के जितने स्वरूपों और गुणों को वह विश्लेषित कर पाया है उससे बहुत अधिक अवशेष हैं। उनको जानने में उसका ज्ञान कहीं न कहीं लड़खड़ा रहा है । परमाणु के सभी स्वरूपों और गणों को वह कभी जान भी पायेगा, इसकी संभावना प्रतीत नहीं होती। ऐसा कहकर वह वैज्ञानिक एक परमाणु के समक्ष अपना विनम्र भाव व्यक्त करता है।
आज की दुनियाँ में समाचार-पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसे जनसंचार माध्यमों का बोलबाला है। ये ही किसी घटना, व्यक्ति, वस्तु आदि को जानने-समझने के लिए, किसी वस्तु आदि के प्रति हमारी रुचि जाग्रत करने अथवा उससे घृणा, वितृष्णा उत्पन्न कराने हेतु हमारे मन-मस्तिष्क को संचारित करने वाली महत्त्वूपर्ण आंख-कान आदि हैं। किन्तु उनसे प्राप्त सामग्री क्या सर्वथा विश्वसनीय ही है? यह सही है कि जो कुछ इन माध्यमों द्वारा हमारे मन-मस्तिष्क की भोजन थाली में परोसा जा रहा है सब कुपथ्य नहीं है, किन्तु सब पूर्ण पथ्य और सत्य भी नहीं है। किसी एक ही घटना के बारे में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन प्रस्तुत किया जाता है। वर्णन की भिन्नता होते हुए भी घटना का सत्यांश उनमें निहित होता है। जिसने जिस दृष्टि से उस घटना को देखा, जाना या समझा उसने उसका उस रूप में वर्णन किया। अत: उस वर्णन की, अपने मन को प्रिय न लगने पर भी, आप सर्वथा मिथ्या कहकर उपेक्षा नहीं कर सकते, उसको सर्वथा अस्वीकार नहीं कर सकते। सत्य की तह में पहुंचने के लिये उक्त घटना के बारे में दूसरे पक्षों को भी जाननासमझना उचित होगा।
बुराइयों में भी अच्छाइयां हैं और अच्छाइयों में भी बुराइयां हैं। देखिये, कैसा विरोधाभास है, किन्तु है सत्य। तभी तो किसी भी विषय के पक्ष और विपक्ष को लेकर वाद-विवाद प्रतियोगिताएं कराई जाती हैं, लेख आदि लिखे जाते हैं। प्रायः आपसी झगड़ों का एक कारण यह होता है कि जो मैं कह रहा हूँ वही सत्य है अन्य नहीं, अगर यह मान लें कि जो मैं कह रहा वह भी सत्य है और दूसरा कह रहा है उसमें भी सत्य हो सकता है तो शायद झगड़ा मिट जाये और सद्भावना का वातावरण बना
रहें।
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