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अनेकान्तवादः एक मनोवैज्ञानिक विवेचन
डॉ० अजिर चौबे
हम अपने दैनिक क्रियाओं में प्रतिदिन एक ही वस्तु या घटना के अनेक पहलुओं पर विचार करते हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण-धर्मों वाली होती है, इस दृष्टि से विचारणीय सम्बन्धित वस्तु के पक्ष के अतिरिक्त अन्य पक्षों का प्रतिघात न हो और उस विचारणीय वस्तु का स्वरूप भी पूर्ण स्पष्ट हो जाय तो कहीं भी टकराव की स्थिति उत्पन्न नहीं होती । धर्माचार्यों ने उक्त संप्रत्यय पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार कर "अनेकान्तवाद" जैसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । आधुनिक युग में बढ़ते चिन्तन के साथ मनोविज्ञान के रूप में एक स्वतन्त्र विधा विकसित हुई जिसके अन्तर्गत सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा मानव-कल्याण सम्बन्धी विसंगतियों को दूर करने के प्रयास हुए हैं। यही कारण है कि मैक्डूगल (१९१४) ने मनोविज्ञान को "जीवित प्राणियों के व्यवहार का विधायक विज्ञान" बताया है।
प्रायः प्रत्येक व्यक्ति जाने - अन्जाने मनोवैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग करता रहता है। यहाँ यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि प्रत्येक धर्म जितना वैज्ञानिक है उतना ही मनोवैज्ञानिक भी। ऐसा ही एक संप्रत्यय “अनेकान्त" भी है जिसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का प्रयोग हम प्रतिदिन अपने व्यवहारों में करते रहते हैं, ये और बात है कि इसकी प्रत्यक्ष जानकारी हमें नहीं होती ।
जैन दर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु अनेक गुण-धर्म वाली है। इस लिए उसका अनेक दृष्टियों से विचार करके प्रतिपादन होना चाहिए। इसी को "अनेकान्तवाद" कहा गया है। जैन मनीषियों की दृष्टि में महावीर की सम्पूर्ण देशना अनेकान्त दृष्टि से हुई।
अनेकान्त शब्द "अनेक” और “अन्त” दो शब्दों से मिलकर बना है। अनेक का अर्थ है- एक से अधिक। एक से अधिक दो भी हो सकते हैं और अनंत भी । दो और अनन्त के बीच अनेक धर्म संभव हैं। तथा 'अन्त' शब्द का अर्थ है धर्म अर्थात्
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