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अनेकान्तवाद की उपयोगिता
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जुदा-जुदा हैं किन्तु उनका एक व्यक्ति में भिन्न दृष्टियों की अपेक्षा बिना विरोध के सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार पदार्थों के विषय में भी सापेक्षता की दृष्टि से अविरोधी तत्त्व प्राप्त होता है। वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने अपने सापेक्षतावाद सिद्धांत (Theory of relativity) द्वारा स्याद्वाद दृष्टि का ही समर्थन किया है।''३८
"सत्" से संबंधित समस्याओं का समाधान भारतीय एवं पाश्चात्य अनेकों विद्वानों ने विभिन्न रूपों में करने का प्रयास किया है। भारतीय दर्शन में जैन दर्शन की
अनेकांतवादी दृष्टि एवं पाश्चात्य दर्शन की व्यावहारिकतावादी दृष्टि पर तुलनात्मक विचार करने पर पाते हैं कि दोनों में कई बातों में समानता है। जैन विचारक मुख्यत: वस्तुवादी हैं और अधिकांश व्यावहारिकतावादी सिद्धांत को मानते हैं और इस दृष्टि से उनके तात्विक विचारों में कुछ भेद भी है, परन्तु जहाँ तक "सत् ” के वास्तविक स्वरूप का प्रश्न है, दोनों के सिद्धांतों में अधिक समता दिखती है। "अनंत धर्मकं वस्तु” दोनों का मूल सिद्धान्त है अर्थात् जिस दृष्टि से जैन दार्शनिकों ने सत् को पहचानने का प्रयास किया है, पाश्चात्य व्यावहारिकतावादी विचारकों का भी प्रयास बहुत कुछ उसी रूप में हुआ है।
जैन-दर्शन में "सत्' के लिये तत्त्व, अर्थ, द्रव्य, पदार्थ आदि शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया है। तत्त्व-सामान्य के लिए इन सभी शब्दों का उल्लेख भिन्न-भिन्न रूपों में मिलता है, जैसे-वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण आदि सात पदार्थ, न्याय दर्शन में प्रमाणादि सोलह पदार्थ, सांख्य दर्शन में पुरुष, प्रकृति आदि।३९
जैन दार्शनिक प्रत्येक "द्रव्य' या “सत्" को अनंत धर्मों का मौलिक पिंड मानते हैं अर्थात् उनके अनुसार सत् का स्वरूप बहुतत्त्ववादी है। परन्तु इस अनंतधर्मों वाली वस्तु का ज्ञान विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न रूपों में एकांगी रूप में होता है। वे सभी “सत्' को केवल एक दृष्टि से देखते हैं। जैसे भगवान बुद्ध ने “सत्" को अनात्मवाद के आधार पर जानने का प्रयास किया और उसे क्षणिक या शून्य माना। इससे भिन्न दृष्टि वाले शंकराचार्य ने वेदों और उपनिषदों के आधार पर "सत्' को समझने का प्रयास किया और उसे अद्वैत घोषित किया। परंतु जैन दर्शन के अनुसार ये सभी सिद्धांत "सत् ” को केवल एक दृष्टि से देखने के कारण एकांगी हैं। “सत्' तो अपने आप में अनंत धर्मों को लिये हए है।''४० मानव का सत् संबंधी ज्ञान आंशिक होता है जिसे दार्शनिक-“नय' की संज्ञा देते हैं अर्थात् नयों द्वारा मानव सत् के एकएक अंश को ही जान पाता है। मानव की दृष्टि परिमित और सीमित होती है। फलस्वरूप मानव का प्रत्येक कथन सीमित दृष्टि सापेक्ष है। अत: कोई निर्णय निरपेक्ष सत्य नहीं है।'४१
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