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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
सम्पूर्ण सत् और असत् के बीच के अर्धसत् जगत् में रहते हैं।३५
___जैनों की तरह प्लेटो ने भी जगत् को सदसत् कहते हुए यह समझाया कि न्यायी, वृक्ष, पक्षी अथवा मनुष्य आदि हैं, और नहीं हैं," अथवा एक समय में हैं और दूसरे समय में “नहीं हैं' अथवा न्यून या अधिक “हैं'' अथवा परिवर्तन या विकास की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। वे सत् और असत् दोनों के मिश्रण रूप में हैं अथवा सत् और असत् के बीच में हैं। उसकी व्याख्या के अनुसार नित्य वस्तु का आकलन अथवा पर्ण आकलन सायन्स (विद्या) और असत् अथवा अविद्यमान वस्तु का आकलन अथवा संपूर्ण अज्ञान नेस्यन्स (अविद्या) है किन्तु इन्द्रिय गोचर जगत् सत् और असत् के बीच का है। इसलिये उसका आकलन भी “सायन्स” तथा “नेस्यन्स' के बीच का है। इसके लिये उसने "ओपिनियन' (Opinion) शब्द का प्रयोग किया है। उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि नौलेज (knowledge) का अर्थ पूर्ण ज्ञान है
और ओपिनियन का अर्थ अंशज्ञान है। उसने "ओपिनियन' की व्याख्या “संभावना विषयक विश्वास (Trust in Probabilities) भी की है अर्थात् जिस व्यक्ति में अपने अंश ज्ञान या अल्प ज्ञान का मान जगा हुआ होता है, वह नम्रता से पद-पद पर कहता है कि ऐसा होना भी संभव है मुझे ऐसा प्रतीत होता है। स्याद्वादी जिद्दी की तरह यह नहीं कहता कि मैं ही सच्चा हूँ और बाकी सब झूठे हैं। लूई ने गाँधी जी का एक वाक्य लिखा है-“I am essentially a man of compromise because I am never sure I am right.36" अर्थात् मैं स्वभाव से ही समझौता पसंद व्यक्ति हूँ क्योंकि मैं ही सच्चा हूँ, ऐसा मुझे कभी विश्वास नहीं होता।”
पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी यह स्वीकार किया है कि प्रत्येक विज्ञान का अपना-अपना प्रंसग होता है, उस विचार की सत्यता उसके प्रसंग पर ही निर्भर करती है। किसी विचार के प्रसंग में स्थान, काल, गुण इत्यादि बहुत सी बातें छिपी रहती हैं
और उन सबों का प्रभाव विचार प्रसंग पर पड़ता है, जिसके बलपर ही उनकी सत्यता प्रकट की जाती है। किसी विचार परामर्श के लिये उन सभी बातों की व्याख्या आवश्यक नहीं है। उनकी संख्या भी बहत है। इसलिए सबों को जानना भी संभव नहीं है। इसी आशय की बात बहुत से पाश्चात्य दार्शनिक भी कहते हैं और वे लोग किसी वाक्य के पीछे 'स्यात्' शब्द का जोड़ना बहुत ही युक्तिसंगत समझते हैं।'३७
___ जैन दार्शनिकों की अनेकांतवादी दृष्टि की तुलना पाश्चात्य दर्शन की व्यावहारिकतावादी या सापेक्षतावादी दृष्टि से की जाती है। लोक-व्यवहार में हम देखते हैं कि एक व्यक्ति अपने पिता की दृष्टि से पुत्र कहलाता है, वही व्यक्ति जो पुत्र कहलाता है, भानजे की अपेक्षा मामा, पुत्र की दृष्टि से पिता भी कहलाता है। इस प्रकार देखने से प्रतीत होता है कि पुत्रपना, पितापना, मामापना आदि विशेषताएं परस्पर
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