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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
स्वरूप, विश्व की उत्पत्ति का कारण, सृष्टि के कर्तव्य की समस्या, आत्मा की अमरता
और शुभाशुभ कर्मों के प्रतिफल आदि प्रश्नों पर विचारक अपने-अपने मंतव्य प्रस्तुत कर रहे थे। साथ ही प्रत्येक चिंतक अपने मंतव्य को सत्य और दूसरे के मंतव्य को असत्य बता रहा था। इस प्रकार उस युग में अनेक स्वतंत्र दार्शनिक अवधारणाएँ अस्तित्व में आ गई थीं और दार्शनिक विवाद उग्ररूप धारण कर रहे थे ।"८
उपनिषद्कालीन चिंतन की स्थिति पर विचार करने पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि उस युग में तत्त्वचिन्तन संबंधी विभिन्न प्रकार की विधाएं प्रचलित थीं, अर्थात् उपनिषदों में किसी भी सुव्यवस्थित दार्शनिक विधा का अभाव था। यही कारण था कि उनके मंतव्यों में एकरूपता नहीं आ सकी और विभिन्न वादों की धाराएँ बह चलीं। वस्तुत: डॉ० एम० हिरियन्ना का यह कथन समुचित ही है कि- उपनिषदों में ठीक क्या-क्या कहा गया है, यह प्रश्न जब पूछा जाता है तब उनके मत परस्पर बहुत भिन्न हो जाते हैं। ये विचारधाराएँ स्वचिंतन के आधार पर अपने-अपने मत का निरूपण ही नहीं अपितु तद्विरोधी विचारधाराओं का खंडन भी कर रहीं थीं जिनका उल्लेख बौद्धपिटक ग्रंथों में भी है जैसे
___आत्मा और लोक नित्य हैं या अनित्य? इस प्रश्न के संदर्भ में परस्पर विरोधी मन्तव्य उपस्थित थे। कुछ विचारकों का मन्तव्य था कि आत्मा और लोक नित्य है, केवल मनुष्य मरता और जन्म लेता है तो कुछ विचारक इस निष्कर्ष पर पहुँच रहे थे कि यह आत्मा और लोक आदि अनित्य हैं। शरीर के नष्ट होते ही ये सब भी नष्ट हो जाते हैं।
इस प्रकार उस युग में कुछ ऐसे विचारक थे जो यह मानते थे कि किसी भी प्रश्न का एक निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। किसी भी वस्तु को नित्य या अनित्य, एक या अनेक, सत् या असत्, नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: वे कोई भी निश्चित निर्णय देना असंगत समझने लगे और प्रत्येक वस्तु तत्त्व के संबंध में वह है, नहीं है, न है और न नहीं है, ऐसा कहने लगे। जबकि वास्तविकता यह थी कि सब के सब मिथ्या दृष्टियों का ही निरूपण कर रहे थे। यही कारण है कि बुद्ध ने उन दृष्टियों को मिथ्या दृष्टियों के नाम से संबोधित किया।
उस युग में प्रचलित ऐसी अनेक मिथ्या दृष्टियों का उल्लेख जैन आगम सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है। जिस प्रकार तत्कालीन विचारक आत्मा और लोक की नित्यता-अनित्यता, चेतना-अचेतना आदि के संदर्भ में अपने-अपने विचार प्रस्तुत कर रहे थे ठीक उसी प्रकार विश्व के मूलतत्त्व की एकता-अनेकता, नित्यता-अनित्यता, चेतनता-अचेतनता आदि के विषय में अपने-अपने मंतव्य निरूपित कर रहे थे। कुछ
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