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अनेकान्तवाद की उपयोगिता
इस प्रकार अनेकांतवाद के उक्त आशय के आधार पर अनेकांत का अर्थ अनेक + अन्त (एक से अधिक धर्म) न होकर अन् + एकांत अर्थात् एकांत का निषेध है। जैन-दर्शन में किसी भी वस्तु की सत्ता को उसके गुणों से निरपेक्ष नहीं माना गया है। प्रत्येक वस्तु को अपने अस्तित्व (सत्ता) के लिए गुणों की भी अपेक्षा रहती है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा भी गया है कि द्रव्य, गुण- पर्याय वाला होता है (गुणपर्यायवद् द्रव्यम्) | अतः वस्तु को अपनी सत्ता के लिये उसमें अनेक धर्मों का ज्ञात-अज्ञात, भावात्मक-अभावात्मक अवस्था में रहना नितांत आवश्यक है। न तो मनुष्य का जन्म एकांतिक रूप से सत्य है और न ही उसका मरण । दोनों को एक दूसरे की अपेक्षा होती है। अतएव पदार्थ को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य, सामान्य और सत् तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अनित्य, विशेष और असत् मानना युक्तिसंगत है। वस्तु को सर्वथा एकांतिक मानने से विरोध आता है। अतः उसे अनैकांतिक ही कहना चाहिये। एकांत का अर्थ होता है वस्तु में एक ही धर्म को स्वीकार करना, किंतु यह वस्तु की यथार्थता के सर्वथा विपरीत और असत्य है । परन्तु यह एकांतता भी तभी तक मिथ्या होती है जब तक कि वह निरपेक्ष है या निरपेक्षरूप से किसी धर्म का कथन करती है। किन्तु सापेक्ष होने पर वही एकांतता सत्य हो जाती है, सम्यक् हो जाती है । सम्यक् एकांतता और मिथ्या एकांतता में यही अन्तर है। सम्यक् एकांत सापेक्ष होता है। जबकि मिथ्या एकांत निरपेक्ष होता है। सम्यक् एकांत भी अनेकांत का ही वाचक है। सम्यक् एकांत भी उसी प्रकार सत्य का उद्घाटन करता है जिस प्रकार अनेकांत" । ६
पंडित सुखलाल जी का कहना है कि “विचार करने और अनेकांत दृष्टि से साहित्य का अवलोकन करने से मालूम होता है कि अनेकांत दृष्टि सत्य पर खड़ी है। यद्यपि सभी महान पुरुष सत्य को पसंद करते हैं और सत्य की ही खोज तथा सत्य के निरूपण में अपना जीवन व्यतीत करते हैं तथापि उससे भगवान महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली जुदा है । महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली का दूसरा नाम अनेकांतवाद है। उसके मूल में दो तत्त्व हैं - पूर्णता और ययार्थता । जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यर्थाथरूप से प्रतीत होता है, वही सत्य है । ' ।"" ये विचारधाराएँ स्वचिंतन के आधार पर अपने-अपने मत का निरूपण ही नहीं अपितु तद्विरोधी विचारधाराओं का खंडन भी कर रही थीं जिनका उल्लेख बौद्धपिटक ग्रंथों में भी है । अनेकांतवाद की दार्शनिक पृष्ठभूमि
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ईसा पूर्व छठी शताब्दी में मानव की जिज्ञासा - वृत्ति काफी प्रौढ़ हो चली थी। अनेक विचारक विश्व के रहस्योद्घाटन का बौद्धिक प्रयास कर रहे थे। यद्यपि उनके चिंतन में तर्क की अपेक्षा कल्पना का ही पुट अधिक था। विश्व की मूल सत्ता का
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