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अनेकान्तः स्वरूप और विश्लेषण है। सिय बंधइ, सिय नो बंधई ११४॥
वस्तु में जितने धर्म होते हैं, उतने ही भंग स्थापित किए जा सकते हैं। विहि-णिसेहावत्तव्वभंगाणं पत्तेयं-दुसंजोय-तिसंजोय । जादाणं तिण्णि तिण्णि एगसंभोयाणं मेलणं सत्तभंगी ।।
अर्थात् विधि, निषेध और अवक्तव्य इन तीनों के दो संयोग और तीन संयोग उत्पन्न हो सकते हैं। प्रत्येक युगल से बनने वाली सप्तभंगियाँ इस प्रकार हैं(क) १. कथंचित् जीव है।
२. ,, जीव नहीं है।
३. ,, जीव अवक्तव्य है। (ख) १. कथंचित् जीव नित्य है।
२. ,, जीव अनित्य है।
३. ,, जीव अवक्तव्य है। (ग) १. कथंचित् जीव वाच्य है।
२. ,, जीव अवाच्य है। ३. कथंचित् जीव अवक्तव्य है।
इस प्रकार प्रमाण वाक्य से या नय वाक्य से एक ही वस्तु में अविरोध रूप से जो सत् या असत् की कल्पना की जाती है वह सप्तभंगी कहलाती है। इसमें प्रश्नकर्ता के प्रश्नज्ञान का प्रयोज्य रहता है। एक पदार्थ विशेष में विधि-निषेध रूप नाना धर्म के प्रकार रूप बोधजनक सात वाक्य होते हैं। यह भी द्रव्य-पर्याय, सामान्य-विशेष, विधि-निषेध, क्रम-अक्रम, नित्य-अनित्य, वाच्य-अवाच्य की विवक्षा से युक्त होते हैं।
सिय अत्थि णत्थि उहय अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि११५॥
अर्थात् आदेश के वश द्रव्य का वास्तव में (i) स्यात् अस्ति, (ii) स्यात् नास्ति, (iii) स्यात् अस्ति-नास्ति (iv) स्यात् अवक्तव्य (v) स्यात् अस्ति अवक्तव्य (vi) स्यात् नास्ति अवक्तव्य और (vii) स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य इन सात रूपों में कथन किया जा सकता है। यह प्रमाण सप्तभंगी एवं नय सप्तभंगी के निर्देश से सापेक्ष कथन है। शान्ति-सह-अस्तित्त्व-अनेकान्तवाद की क्रान्ति ..
सामाजिक विषमता, हिंसा, क्रूरता, अनाचार, अत्याचार, आदि के वातावरण में मानवीय-मूल्य लगातार हास को प्राप्त होते जा रहे हैं। सम्पूर्ण सामाजिक ढांचा ही चरमरा गया है, विषम स्थितियाँ पैदा हो गई हैं। जातीयता की थोथी दीवारों और अमीरी
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