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अनेकान्त: स्वरूप और विश्लेषण
वस्तु का विधिपूर्वक विभाग करता है, भेद करता है, अनन्त विकल्पों का संग्रह कर उसके विस्तार का विवेचन करता है। आवश्यक नियुक्ति में इस प्रकार की व्युत्पत्ति की हैव्यवहरणं व्यवहारः यदि वा विशेषतोऽवहियते निराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहार:, विशेषप्रतिपादनवरो व्यवहारनयः १८ । "
अर्थात् जो विधिपूर्वक व्यवहार करता है, विशेषता का प्रतिपादन करता है और सामान्य का निराकरण करता है, ऐसा विशेष के प्रतिपादन में अग्रणी व्यवहारनय है। “लोकानामनादिरूढोऽस्ति व्यवहारः । "
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लोगों का व्यवहार अनादि काल से चला आ रहा है कि घड़े का उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड है, उसी का घड़ा बनता है, घड़े को बनाने वाला कुम्हार है और जल धारण करना घड़े का कार्य है, उसका मूल्य लेना कुम्हार की क्रिया है । वैसे ही उपादान रूप से कर्मों को पैदा करने वाला - "ववहारस्स दु आदा पुग्गलकम्मं करेदि णेयविहं६९” पुद्गल कर्म है, जो उत्तर प्रकृति-मूल-प्रकृति के रूप में अनेक प्रकार के हैं। व्यवहारनय की मुख्यता से सुख-दुःख कर्मों का कर्ता और भोक्ता जीव है । व्यवहारनय संयोग सम्बन्ध और निमित्तनैमित्तिक भावों को बतलाने वाला है।
(क) कर्तृत्व- भोतृत्व अनेकान्त सम्मत
कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व के आधार पर नय विभाजन अनेकान्त सम्मत है। व्यवहार के कर्तृत्व भाव के तीन कारण हैं
(१) शरीरात्मक - जीव यह सोचता है कि 'मैं पुरुष हूँ" अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए वह जो परिश्रम करता है वह शरीरात्मक कर्तापन है।
(२) अविरतात्मक - जब वही यह जान लेता है कि मैं नाना पर्यायों में जन्ममरण के दुःखों को सहता हुआ अनन्तकाल बिता चुका हूँ, अब मुझे यह जन्म मिला, इसलिए शुभकार्यों में प्रवृत्त दानादि शुभ क्रियाओं को करता है ।
(३) विरतात्मक - 'संसार असार है; यह जानकर विरक्त भाव से युक्त सर्वज्ञ की स्तुति करता है, गृहस्थाश्रम से विरक्त होकर श्रमणों की शरण में जाता है। ववहारेण दु आदा करेदि घड पड रथाणि दव्वाणि ।
करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि ।।
आत्मा / जीव व्यवहार से घट, पट, रथादि द्रव्यों का कर्ता है, इन्द्रिय कर्म कर्ता है, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शारीरिक नोकर्म और क्रोधादिक भावकर्मों का भी कर्ता है।
पराश्रितो व्यवहारः
परपदार्थों पर आश्रित होना व्यवहार है। लोक व्यवहार के कारणभूत जितने भी
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