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अनेकान्तः स्वरूप और विश्लेषण
___243 द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक एक दूसरे से अभिन्न हैं, द्रव्यार्थिक नय जब सर्वव्यापक सत्ता सामान्य को विषय बनाता है, तब दृष्टिगत विशेष को उपेक्षित कर देता है। इसी प्रकार जब पर्यायार्थिक नय वस्तु धर्म को विषय करता है, तब सत्ता सामान्य को गौण कर देता है। अपने-अपने विषय की दृष्टि से एक नय दूसरे नय से अभिन्न भी है, किन्तु अन्तिम विशेष में यह सम्भव नहीं है। असत्य दृष्टि-अनेकान्त नहीं
___ दोनों नय निरपेक्ष अवस्था में 'असत्' हैं, वे 'सत्' नहीं बन सकते । क्योंकि सामान्य और विशेष की सापेक्षता होने पर ही 'उप्पायट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्ख एय।" अर्थात् उत्पात, स्थिति और भंग/ध्रौव्य होने पर द्रव्य का लक्षण बनता है। कोई द्रव्य नित्य, कोई अनित्य, कोई उत्पत्ति रूप, और कोई विनाश रूप मात्र नहीं है। दोनों की स्वतन्त्र मान्यता 'मिथ्यादृष्टि' का परिचायक है। इन्हें सिद्धसेन ने - “पत्तेयं दण्णया णया सव्वे' के आधार पर कहा है कि यदि ये एक दूसरे के विषय को तिरस्कृत करने वाले हैं तो दर्नय हैं। अपने-अपने विषय को पूर्ण रूप से कहने पर भी तब तक एकान्त हैं, जब तक वे परस्पर 'सापेक्ष' रूप से वस्तु तत्त्व का निरूपण नहीं करते हैं। “विभज्जमाणा अणेगंतो५४।"
परस्पर विभज्जमान/सापेक्ष कथन करने पर अनेकान्त है और तभी वे यथार्थ कहे जाते हैं। सासय-वियत्तिवाई
"शाश्वत व्यक्तिवादी/नित्य व्यक्तिवादी द्रव्यार्थिक नय नहीं है, यदि ऐसा माना जाएगा तो एकांत का दोषारोपण ही नहीं अपितु अनेकान्त की सापेक्ष दृष्टि निरपेक्ष हो जाएगी। पर्यायार्थिक नय को मात्र उच्छेदवादी/नाशवादी मानने पर भी सापेक्ष दृष्टि फलीभूत नहीं हो सकती है। नय सम्यक् कैसे?
अनेकान्त की रत्नावली जब तक रहेगी, तब तक प्रत्येक नय का वस्तु विवेचन सापेक्ष रीति को प्रकट करने वाला होगा। मणियाँ अनेक हैं, वे मणियाँ एक सूत्र में जबतक बंध नहीं जाती, तब तक 'रत्नावली' की शोभा को प्राप्त नहीं होती हैं। इसी तरह अलगअलग अवस्था में निरपेक्ष दृष्टि वाले नय सम्यक नहीं कहे जा सकते हैं। अपने-अपने पक्ष में लगे हए नय मिथ्या हैं। जब कोई दृष्टि दूसरे का निराकरण करती हुई अपने विषय की पुष्टि करती है, तब निरपेक्ष कथन के कारण वह वचन व्यवहार मिथ्या बन जाता है।
'सव्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा५५” अर्थात् सभी नय अपने पक्ष में बँधे हुए मिथ्यादृष्टि हैं। अण्णोण्ण-णिस्सिया उण
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