________________
239
अनेकान्तः स्वरूप और विश्लेषण
239 अभेद सम्बन्ध है। “गुण-पज्जयासयं" अर्थात् गुण स्वभाव वाला द्रव्य है। ८. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय
स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और सवभाव में वर्तमान द्रव्य को ग्रहण करने वाला यह नय है अर्थात् स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा द्रव्य 'सत्' है। ९. पर-द्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय
इस नय में परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव को विषय बनाकर द्रव्य के 'असत्' स्वभाव का प्रतिपादन किया जाता है अर्थात् परकीय चतुष्टय से द्रव्य नास्ति रूप है। १०. परभावग्राही द्रव्यार्थिकनय
'गेण्हइ दव्वसहावं असुद्ध-सुद्धोवयार-परिचत्तं । सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण ५।।
इस नय में अशुद्ध, शुद्ध और उपचरित स्वभाव से रहित परमस्वभाव को ग्रहण किया जाता है, जैसे आत्मा ज्ञान स्वरूप है। जीव के औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक भाव होते हैं। इनमें औदयिक भाव बन्ध का कारण है, औपशमिक और क्षायिक भाव मोक्ष के कारण हैं तथा पारिणामिक भाव जो बन्ध एवं मोक्ष दोनों का ही कारण है, उसे ही परमभाव कहते हैं। परमभाव वस्तु का निज स्वभाव है।
यह नय नाना युक्ति और बल के द्वारा विशेष रूपों से अविनाभूत सामान्य की सिद्धि करने वाला है। यह वस्तु के समस्त अंशों को गौण करके केवल अंशी को अपने अर्थ का प्रयोजनभूत कारण बनाता है। वस्तु द्रव्य-पर्याय युक्त होती है, उस वस्तु की द्रव्यं दृष्टि ही इसका मूल विषय होता है। यह प्रमाण के विषयभूत द्रव्य-पर्यायात्मक एवं एकानेकात्मक अनेकान्त स्वरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिक नय के विषयभूत कारणों को गौण करता है, उसकी स्थिति मात्र को स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्य को अभेद रूप व्यवहार करता है। अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता है, इसलिए यह नय सद्भत नय भी है, जैसे- सोना लाओ, लकड़ी लाओ, पुस्तक लाओ, कहने पर कोई व्यक्ति सोने के रूप में कंगन, लकड़ी के रूप में बबूल की लकड़ी, और पुस्तक के रूप में 'सम्मइसुत्त' लाता है, इससे उसे कोई विरोध नहीं, जो वस्तु चाहता था, वह मिल गई। यदि यहीं पर विरोध हो जाए कि यह क्या ले आया तो उससे बनती हुई बात बिगड़ जाएगी। कषाय पाहुड़ में विवेचन है कि- सद्भाव लक्षण वाले सामान्य से अर्थात् पूर्वोत्तर पर्याय में रहने वाले उर्ध्वता सामान्य से जो अभिन्न है और सादृश्य स्वरूप वाले सामान्य से अर्थात् अनेक जातीय पदार्थों में पाए जाने वाले तिर्यग्सामान्य से जो कथंचित् अभिन्न है, ऐसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org