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________________ 20 मानता था । इस लोकतत्त्व के कारण ही लोककथाओं में वृक्ष, पहाड़, नदी, पशु-पक्षी सबं समान रूप से मानवों की तरह कार्य करते हुए पाये जाते हैं, पत्थर एवं काष्ठ की प्रतिमाओं में विभिन्न देवताओं की प्राणप्रतिष्ठा इसी प्रवृत्ति का परिणाम है । कुवलयमाला में भी चंडसोम आदि पांचों व्यक्ति अपनी-अपनी स्वर्णप्रतिमा का निर्माण इसलिए करते हैं ताकि अगले जन्म में भी वे एक-दूसरे को प्रतिबोध दे सकें। ग्रन्थ की स्वयम्भूदेव की कथा में भी पक्षियों का व्यवहार एक मानवीय संयुक्त परिवार के जीवन सदृश प्रस्तुत किया गया है । संभवतः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति जैसे प्राकृतिक एवं सामान्यतया जड़ माने जाने वाले पदार्थों में जैन दर्शन द्वारा चेतनता स्वीकार करना आदिम लोक-मानस की प्रवृत्ति का ही परिणाम हो । जिसे आज विज्ञान ने भी स्वीकृति दे दी है। इस प्रवृत्ति के कारण जैन धर्म उतना ही प्राचीन कहा जा सकता है, जितना आदिम लोकमानस । इस प्रकार न केवल कुवलयमालाकहा, अपितु प्राकृत अपभ्रंश जैसी लोक भाषाओं में निबद्ध जैन धर्म की अनेक रचनाएँ लोकतात्त्विक दृष्टि से अध्ययन करने योग्य हैं। लोक संस्कृति के विभिन्न उपकरणों-भाषा, विश्वास, जीवन-पद्धति, मुक्तचिन्तन आदि को आत्मसात् करने के कारण प्राकृत साहित्य लोकसाहित्य की कोटि में रखा जा सकता है, भले ही उसके रचयिताओं के द्वारा कोई विशिष्ट उद्देश्य इसके द्वारा पूरा होता रहा हो। पादटीप १. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज- पृ. ३३९-३६० २. इण्ट्रोडक्शन टू कुवलयमाला-डॉ० ए०एन० उपाध्ये तथा कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन-ले० का शोध-प्रबन्ध ३. जह अप्पा पाव-मगो बाहिंजल-धोवणेण किं तस्स । जं कुंभारी सूया लोहारी किं घयं पियउ || -वही, ४८.२७ ४. जह अंग-संगमेणं ता एए मयर-मच्छ-चक्काई । केवट्टिय-मच्छंधा पढम सग्गं गया णंता ॥-वही, ४८.३२ ५. महव परिचिंतियं चिय कीस इमो दूर-दक्खिणो लोओ । आगच्छइ जेण ण चितिऊण सग्गं समारुहइ ॥-वही, ४९.१ ६. गरवर ण-याणइ च्चिय एस वगओ इमं पि मूढ-मणो । जं मूढ-वयण-वित्थर-परंपराए भमइ लोयं ।।-वही, ५५. २५ ७. हर्बर्ट स्पेन्सर, हयूगोएलार्ड मेचेर. प्रो. रिजवे, लेंग, फ्रेजर, कोथ आदि के सिद्धान्त । ---दृष्टव्य-लोक साहित्य विज्ञान, पृ-६०-६४ । ८. कुवलयमाला को अवान्तर कथाओं का लोकतात्त्विक अध्ययन, लेखक का निबन्ध-सत्येन्द्र अभिनन्दन ग्रन्थ । ९. कुव० परि० ४१; समरा० प्रथम भव को कथा । १०. हरिभद्र के प्रकृत कथासाहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन डा० नेमिचन्द्र शास्त्री - पृ० २४४-२८६ ११. कुवलयमाला में मणिरथकुमार की कथा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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