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________________ गत रूप से भाषा और बोली दोनों ही अपने-अपने रूपों में प्रवर्तमान रहती हैं । भाषा हमें साहित्य से सीखने को मिलती है और बोली मां-बाप तथा जन समाज से । हमारे बोलने और लिखने की भाषा में प्रायः अन्तर रहता है। बोलने में हम असावधानी और शिथिलता भी बरत लेते हैं, किन्तु लिखने में संयम और साधु भाषा के प्रयोग का ध्यान रखते हैं । साधु तथा संयत भाषा के पक्षपाती शिष्टजन स्वाभाविक भाषा या बोली को गंवारू या उज्जड लोगों की भाषा समझते चले आ रहे हैं । इसे वे अपशब्दों से भरित तथा अपभ्रष्ट भी मानते हैं । भाषाविद स्टेनली रंडले का यह कथन उचित ही है कि बोली के सम्बन्ध में बड़ा भ्रम फैला हुआ है । लोग समझते हैं कि चोलियां लोक साहित्य के रूप में प्रचलित बनी हुई हैं, किन्तु वे असंगत रूप हैं और केवल अध्ययन की वस्तु हैं । अतएव अधिकतर लोगों की दृष्टि में बोली मानक भाषा (Standard Language) का अतिक्रमण है । प्रत्येक देश की कोई न कोई मानक भाषा होतो है । उर मानक भाषा के अपभ्रंश को बोली समझा जाता है । कार्नवाल और स्काटलैन्ड लोगों के विषय में कहा जाता है कि वे मानक अंग्रेजी की तोड़-मरोड़ कर बोलते हैं'। टकग्गली, आदर्श या मानक भाषा सदा स्थिर नहीं रहती । युग-युगों में घटित होने वाले परिवर्तनों के बीच भाषा का स्वरूप भी परिवर्तित होता रहता है । लगभग एक शताब्दी के पूर्व जो खड़ी बोली लोकनाट्यों तथा स्वांगों के रूप में प्रचलित थो वह आज भाषा ही नहीं राष्ट्रभाषा भी है। इसलिए अ"ज के भाषा-रूप की रचना में पहले के भाषिक रूप से बहुत भिन्नता है । इससे यह भी स्पष्ट है कि आधुनिक युग की बोलियां सम्प्रति स्वीकृत मानक या आदर्श भाषा-रूप का अतिक्रमण नहीं है । बोलियों का भी अपना इतिहास है। वे कई शताब्दियों के अन्तराल में फैल कर अपना विकास करतो हैं । बोलियों के विकास की यह एक प्रक्रिया है जो किसी एक देश में नहीं, वरन् संसार की सभी बोलियों के सम्बन्ध में घटित हुई है। यही प्रक्रिया संस्कृत के साथ घटित हुई, जो एक कृत्रिमपूर्ण साहित्यिक भाषा थी। प्राकृतिक बोलियों को प्राकृत कहा जाता था । यद्यपि ते संस्कृत-साहित्य से प्रभावापन्त रहीं. किन्त उन्होंने अपने अपने साहित्य का स्वयं निर्माण किया । वे संस्कृत का भ्रष्ट रूप नहीं थीं। हमारे जोवन की वास्तविकता सहज रूप में बोली के माध्यम से निःसृत होती है । अतएव आंचलिक वातावरण के चित्रण में क्षेत्रीय बोली का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। यही स्थिति संस्कृत-काल में प्राकृत की थी । भारतीय इतिहास के गप्त-यग में राजदरवारों में प्राकत नाटिकाओं, सट्टकों के अभिनय के साथ जब संस्कृत नाटकों के अभिनय भी किए जाने लगे, तब संस्कृत नाटकों में प्राकृत का समावेश अनिवार्य हो गया । क्योंकि सामान्य र्ग के लोग प्राकृत हो बोलते-समझते थे । इसके लिए वैयाकरणों को विशेष प्रयत्न करने पड़े । यथार्थ में उस युग के संस्कृक वैयाकरणों को संस्कृत भाषा को प्राकत में ढालने के लिए विशेष नियम बनाने पड़े। इस कारण प्राकृत शब्दावली में तोड़-मरोड भी हुई और आगे चल कर वे प्राकृत-अपभ्रंश कहलाई जो वास्तव में बोली १-द्रष्टव्य : विल्सन, ग्रेहम (सं) : ए लिंग्विस्टिक रीडर, १९६७, पृ. ८६ २-वही, पृ. ८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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