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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २
भूषण भूतनाथ है। वहाँ भूतनाथ वृषभेश्वर संकट विमोचक हैं । अहोरात्र तेजस्वी और कांतिमान रहने वाले मुख के लिये 'वक्त्र" शब्द का ही प्रयोग किया है 2 क्योंकि वह बोलने वाले उपादान के लिये प्रयुक्त है । जहाँ जिनेन्द्र 'मेरू' से दृढ़ हैं वहाँ देवांगनाएँ उन्हें चलित कैसे कर सकती हैं । 3 जिनेन्द्रदेव ने मृत्यु को जीत लिया तभी तो मृत्युजय हैं। 4 संतपुरुषों की भाषा में वे अक्षय, अव्यय, परमवैभवसम्पन्न, वचनअगोचर, गुणाहीत, अघस्मरणीय ब्रह्मा, ईश्वर, अन्नत, अनंगकेतु, योगीश्वर, योगवेत्ता, ज्ञानस्वरूप एवं अमल कहे गये हैं । 5 और आदीश्वर इन सभी शब्दों या विशेषणों के गुणधारी हैं अतः हर शब्द सार्थक ही नहीं धन्य हो गया है । वे किन गुणों और विशेषताओं के कारण बुद्ध है, शंकर है, ब्रह्मा है इसका विवेचन भी बड़े अर्थपूर्ण ढ़ग से कवि ने किया है।" अरह तदेव तो 'क्षितितलामलभूषण' हैं जो रत्नत्रय की सुरभितमाला अनन्तचतुष्टय के मणिमुकुट जब केवल लब्धियों के अलंकारों से सुशोभित हो रहे हैं ।
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इस स्तोत्र की भाषा माधुर्य और प्रासादगुणों से युक्त है । वैसे इन गुणों के साथ भाषा की ध्वन्यात्मकता एवं संगीतात्मकता मनोमुग्ध करती है । विभोर होकर भक्त और कवि गा ऊठता है, उसका रोम-रोम पुलकित हो उठता है । मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि नयनमूँद कर गा उठनेवाले स्वर जैसे साकार उभरनेवाले चित्रों में खो जाते हैं। यह भाषा की ही शक्ति है जो भावों के चित्र खड़े कर दे । विशेषकर अतिशय युक्त वर्णनों में यह तथ्य दृष्टव्य है ।
अलंकारयोजना स्तोत्र की कला की दृष्टि से सर्वाधिक सबल पक्ष है, और कुशलता तो यह है कि ये अलंकार लादे गये नहीं लगते हैं, स्वाभाविक होने से कला को सुन्दरता को सुन्दरतम बनाते हैं ।
1. श्लोक (१०), 2. (१५)
3. श्लोक (१५), 4. (२३), 5. (२४), 6. (२५), 7. (२६)
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