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भक्तामर स्तोत्र में भक्ति एवं साहित्य
लोगों की वेदनाओं के कर्ता हैं, तीनों लोक के पवित्र-पावन, मंडनमनोज्ञ अलंकाररूप हैं, परमेश्वर हैं और संसार सागर को प्रचंड तेज से शोख लेने में सक्षम हैं ।1 अष्ट प्रतिहार्यों का तेज यद्यपि आप से ही तेजवान हैं, तथापि ये प्रतिहाय" आप अतिशय और महिमा को ही प्रदर्शित करते है जिससे भव्य जीवों को कल्याणमार्ग की प्रेरणा मिलती है । जिनेन्द्रदेव की दिव्य ध्वनि यद्यपि निरक्षरी है तथापि भिन्न-भिन्न कोटि के श्रोता (पशु-पक्षी सहित) स्व-भाषा में समझ लेते हैं । तीर्थकर की दिव्य ध्वनि अहोरात्रि की चार सन्ध्यायों में छह छह घड़ियों के अन्तराल से खिरती रहती हैं जो एक याजन तक सुन पड़ती है ।
जिनेन्द्रदेव की स्तुति जीवन की मुक्ति का मार्ग तो प्रशस्त करती ही है, पर उनकी आराधना से लौकिक एव तात्कालिक सफलताएँ भी यथाशीघ्र प्राप्त होती हैं । ऐरावत के समान भीमकाय हाथी क्रोध से मदोन्मत्त होकर उच्छखल हो गया हो जिसको वश में करना असम्भव-सा हो गया हो, वह हाथी भी आपके आराधक के सन्मुख आने पर उसका कुछ भी नहीं बिगड़ सकता...अरे ! बर्बर पशु अपनी पशुता त्यागकर सौम्यता धारण कर लेता है । बलिष्ठ हाथी को क्षत-विक्षत कर देनेवाला खूखार सिंह भी आपके भक्त पर वार नहीं कर सकता । सिंह भी अपनी करता त्याग देता है ।2 हे जिनेन्द्र ! आपके नामस्मरण के शीतल जल से वह प्रचण्ड दावाग्नि जो प्रचंड झकोरों से धधकती है, जो भूमंडल को मिलने के लिए लपलपाती है वह भी शामिल हो जाती है । 3 जिनेन्द्रदेव का कीर्तन करनेवाला काल से काले और जहरीले नाग को भी वैसे ही पांवधर कर लांघ जाता है जैसे नागदमीनी बूटी को लेकर कोई अन्य उसे लांघ सकता है। आपका कीर्तन नागदमनी-जड़ी-सा प्रभावक है। भीषण रणक्षेत्र में जहाँ उछलकर घोड़े हिनहिना रहे हैं, हाथी चिघाड़ 1. (३९), 2. (४०), 3. (४१)
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