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भक्तामर स्तोत्र में भक्ति एव साहित्य
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मणियाँ झिलमिलाने लगती है। जिनकी कांति चन्द्रमा सी उज्ज्वल है ।। जिनेन्द्रदेव इतने लावण्यमयी हैं कि जिन्हें निनिमेश नयनों से निहा. रने का मन उत्सुक रहता है । इस रूपछटा के क्षीरसागर का पान करने वाले का अन्यत्र चित लग ही नहीं सकता । 2 देवाधिदेव परमौदारिक शरीर के धारक हैं । उनकी देह अत्यन्त सुन्दर है जिससे अन्य देवों की देह की कांति भी मंद हो जाती है। क्योंकि उपलब्ध परमाणु ही उतने थे जितने आपकी रचना में आवश्यक थे। अर्थात् देहसौन्दर्य की इतिश्री आपके ही शरीरनिर्माण में लग गई है। जिनेन्द्र देव का सम्पूर्ण शरीर यद्यपि सौन्दर्य का भण्डार है तथापि उनका मुख इतना ज्योतिर्मय है कि तीन लोक में उसके लिये उपमान ही नहीं मिलता। अरे चन्द्रमा का उपमान भी योग्य नहीं - वह तो स्वयं कलंकी है । दिन में निस्तेज हो जाता है और आपका मुख तो निदधि एवं तेजयुक्त सदैव रहता है । 3 "प्रभु तो कर्म कालिमा से रहित मणिमय ज्योति से ज्योतिर्धर हैं। उनकी कांति उस संसारी दीप-सी नहीं है जो मिट्टी से निर्मित या बुझ जानेवाली वर्तिका युक्त हो, तैल ही जिसका जीवनाधार हो और पवनझकोरों का जिसे भय हो। आपके तले लौकिक दीपसा अधिकार भी नहीं है । हे नाथ ! आप तो अलौकिक दीप हैं । जिनेन्द्रदेव ! सूर्य से भी अधिक प्रकाश-तेजवान हैं। अद्वितीय मार्तण्ड हैं जो तीनों लोकों को हर समय प्रकाशित बनाये रहते हैं। वे उस सूर्य से श्रेष्ठ हैं जो ग्रहण
और अस्त होने से मुक्त हैं। इसी सौन्दर्य से अभिभूत भक्त अपने इष्ट के रूप में इतना विभोर है कि निरंतर नयी उपमाओं से उसे तौलता है। अरहंतदेव या मुख कमल ऐसा विलक्षण चन्द्रमा है जिसका कभी क्षय नहीं होता, ग्रहण नहीं लगता एव जिसकी कांति घटती1. श्लोक १-२ (२), श्लोक ११ (३) 2. श्लोक १२ 3. श्लोक (१३) 4. (१६), 5. (१७)
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