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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २
थी । उनकी देशना में अहंकार एवं अभिमान में मदोन्मत्त बने मानव को निरहंकारी बनने की प्रेरणा थी । उन्होंने कहा : 'गज थकी नीचे उतरों वीरा गज चढ़याँ केवली न होती ।' राजमती से विवाह करने के लिये बरात सजाकर आनेवाले नेमिनाथ जब बाड़े में बंधे पशुओं का करुण क्रन्दन सुन कर, मुँह मोड़ लेते हैं, तब राजमती विरह-विदग्ध होकर विभ्रान्त नहीं बनती प्रत्युत विवेकपूर्वक अपना गन्तव्य निश्चित कर साधनामाग पर अग्रसर होती है । जब नेमिनाथ के छोटे भाई मुनि रथनेमि उस पर आसक्त होकर अपने संयम-पथ से विचलित होते हैं तो वह सती साध्वी राजमती उन्हें उद्बोधित करती हुई कहती हैं
धिरत्थु तेऽजसो कामी, जो तं. जीवियकारणा ।
वंतं इच्छसि आवेउ, सेमं ते मरण भवे ।।1 हे अपयश के अभिलाषी ! तुझे अधिकार है, जो तू असंयमरूप जीवन के लिये वमन किये हुए - त्यागे हुए कामभोगों को पुनः ग्रहण करने की इच्छा करता है । इसकी अपेक्षा तो तेरा मर जाना श्रेष्ठ है।
संयमवती राजमती का उद्बोधन पाकर अंकुश से जैसे हाथी अपने स्थान पर आ जाता है वैसे ही वह रथनेभि भी चारित्रधम' में स्थिर हो जाता है । -
तीसे सो वयणं सोच्या, संजमाई सुभासिम । अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपड़िबाइओ ।।
.. -'दशवैकालिक', २/१० तत्त्वज्ञ श्राविका के रूप में जयन्ती का नाम बड़े गौरव के साथ लिया जा सकता है । वह, कोशाम्बी के राजा शतानीक की बहिनी 1. 'दशवकालिक', २/७
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