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अप्रकाशित प्राकृत शतकत्रय
अज्जं कल्लं पुरपुण्णं जीवा चिंतति अस्थि संपत्ते । अंजलि - गहियग्मि तोय गलतिभाउ ण पिच्छंति ||२|| जं कल्लेण कयव्व त अज्ज चिय करेह तुरमार्ण । बहु - विग्द्योहमुहुत्तो मा अवरह प्पडक्खेहिं ||३||
अ ंतिम अश
चडगइणंत दुहाणल पलित्त भवकाणणे महाभीमे । सेवसु रे जीव ! तुम जिणवयण अमिय कुंड सम्म ं ।।१०४।।
विसमे भवमरूदे से अनंतुदुह गिम्हताव संतते । जिणधम्म कप्परूक्खं सरिस तुम जीव सिवसुहय ||१०५ ॥ किं वहुणा तहघम्मो जहअव्व जह भवोदहिं घोर । लहु तरिउमणंत सुह लहइ जियउ सासय ं ठाण ं ।। १०६ ।। ।। इति वैराग्यशतकं सम्पूर्णम् || द्वितीयम् ||
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इस वैराग्य शतक में संसार से वैराग्य उत्पन्न करने के लिये शरीर, यौवन और धन की अस्थिरता का वर्णन किया गया है । संसार की क्षणभंगुरता के दृश्य उपस्थित किये गये हैं । संसार के सभी सुखों को कमलपत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद की तरह चंचल कहा गया है । इस शतक में काव्यात्मक बिम्बों का अधिक प्रयोग किया गया है । व्यक्ति के अकेलेपन का चित्रण करते हुए कहा गया है कि माता-पिता, भाई आदि परिवार के लोग मृत्यु से प्राणी को उसी प्रकार नहीं बचा सकते हैं जिस प्रकार सिंह के द्वारा पकड़ लिये जाने पर मृग को कोई नहीं बचा सकता । यथा --
जह सीहो व मियं गहाय मच्चू नरं णेइ हु अंतकाले । णा तस्स माया व पिया न भाया कालंमि तंमिसहारा भवति ॥
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