________________
जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २
इन्द्रियपराजय शतक पर सं. १६६४ में गुणविनय ने एक टीका भी
लिखी है ।
40
प्राकृत इन्द्रियशतक का प्रारम्भ इस प्रकार होता
आदि अश
ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।।
सो च व सूरो सो चेव पंडियो त पसंसिमो निच्च इन्दिय चोरेहि सया न लुहिय जस्स चरणधणं ॥१॥ इन्दिय चवला तुरगो दुग्गइ मग्गाणु धाविणो णिच्च । भाविय भवस्स रूवो संभइ जिणवयणरिस्सीहि ||२|| इन्दिय घुत्तणमहो तिलंतु समित्तं पि दिसु मा पसरो । जइ दिण्णो तो नीउ जत्थ खणो वरिस कोडि समो ॥३॥ अंतिम अंश
दुक्करामे एहि कथं जेहिं समत्थेहि जुवणच्छहि । भगाइन्दियण धिइपायार वि लग्गेहिं ॥ ९९ ॥ ते घण्णा ताणं णमो दासोऽहं ताण संजमधराणं । अह अहच्छि पिरीआ जाण ण हियर खुडकंति ॥ १०० ॥ किं बहुणा जइ वच्छसि जीव तुम सासय ं सुहौं अख्अ । ता पिअसु विसइविमुहो संवेगरसायणं णिच्च ॥ १०१ ॥
॥ इति श्री इन्दिय शतक समाप्तं ॥
इस इन्दिय शतक में कुल १०१ प्राकृत गाथाएँ हैं । इन गाथाओं के उपर पुरानी हिन्दी में टिप्पण भी लिखे हुए हैं । इनमें से कुछ उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य हैं
गाथा १
सोइ सुरमा पुरुष सोइ पुरुष पंडित ते हवइ प्रसंस्यज्यो नित्यं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org