________________
36
जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २
सन्धि-कन्ध को धारण करने वाले, ऊँची-नीची विषम पसलियों तथा हड्डियों वाले और कुरूप होंगे। उत्कृष्ट एक हाथ की अवगाहना (ऊँचाई) और २० वर्ष की आयु होगी । बड़ी बड़ी नदियों का विस्तार हथ मार्ग जितना होगा । नदियों में पानी बहुत थोड़ा रहेगा । मनुष्य भी केवल बीज रूप ही बचेंगे । वे उन नदियों के किनारे बिलों में रहेंगे । सूर्योदय से एक मुहूत पश्चात् बिलों से बाहर निकलेंगे और मत्स्य आदि को उष्ण रेती में पकाकर खायेंगे !...
छठे आरे के अन्त होने पर यह ह्रास अपनी चरम सीमा पर पहुँचेगा । इसके बाद पुनः उत्सर्पिणी काल-चक्रार्द्ध प्रारम्भ होगा जिससे प्रकृति का वातावरण पुनः सुधरने लगेगा । शुद्ध हवाएँ चलेंगी । स्निग्ध मेघ बरसेंगे और अनुकूल तापमान होगा । सृष्टि बढेगी। गाँव व नगरों का पुनः निर्माण होगा। यह क्रमिक विकास उत्सपिणी के अन्त काल में अपनी चरम सीम पर पहुंचेगा । इस प्रकार एक काल-चक्र सम्पन्न होता है ।
जैन मान्यता के अनुसार अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे सुखमा-दुःखमा के समाप्त होने में ८४,००,००० पूर्व', तीन वष' व ८ १/२ महिने शेष रहने पर १५ वे कुलकर से प्रथम तीर्थ कर का जन्म होता है । प्रथम तीर्थ कर के समय ही प्रथम चक्रवर्ती का भी जन्म होता है । चौथे आरे दुखमा-सुखमा में २३ तीर्थकर, ११ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, १ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव जन्म लेते हैं। इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे दुखमासुखमा के तीन वष और ८ १/२ महिने व्यतीत होने पर प्रथम तीर्थ कर का जन्म होता है । इस आरे में २३ तीर्थ कर, ११ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव होते हैं । चौथे आरे सुखमादुखमा के ८४ लाख पूर्व, तीन वष ८ १/२ महिने बाद २४ वें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org