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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २ समा के साथ लगने से समा के दो रूप हो जाते हैं : सुष्मा और दुष्ना । 'स' का 'ख' या 'घ' होने से सुखमा और दुखमा हो जाते हैं। सुखमा का अर्थ है अच्छा काल और दुखमा का अर्थ है बुरा काल । काल को सर्प से उपमित किया गया है। सर्प का व्युत्पत्ति लम्य अर्थ है गति । काल की गति के विकास और हास को ध्यान में रखकर काल के दो भेद किये गये हैं : उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी। जिस काल में आयु, शरीर, बल आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाए वह उत्सर्पिणी और जिस काल में आयु, शरीर, बल आदि की उत्तरोत्तर हानि होती जाय वह अवसर्पिणी काल है। उत्सर्पिणी काल चक्राध में समयक्षेत्र की प्रकृतिजन्य सभी प्रक्रियाएं क्रमशः निर्माण और विकास की और अग्रसर होती हुई प्रगति की चरम सीमा को प्राप्त होती है। उसके बाद अवसर्पिणी काल चक्रार्ध के प्रारंभ होने पर प्रकृतिजन्य सभी प्रक्रियाएँ पुनः ध्वंस और हास की और चलती हैं और अन्त में विनाश की चरम सीमा को छूती हैं ।
प्रत्येक काल चक्राध के ६ खण्ड होते हैं जिन्हें 'आरा' कहते हैं। काल चक्र के आरों के नाम और कालावधि इस प्रकार है :
उत्सर्पिणी काल नाम
अवधि
अवसर्पिणी काल नाम
अवधि
१. दुःखमदुखमा २१,००० वर्ष
सुखमसुख्या
२. दुखमा
"
सुखमा
सुखमा
४ क्रोडाकोड सागरोपम ३ क्रोडाकोड सागरोपम २ क्रो. सा.
३. दुःखमसुखमा क्रोडाकोड़
सुखमदुखमा
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