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जैन साहित्य समारोह -गुच्छ :२ मानतारूप वृत्ति अर्थात् क्रिया वर्तना कहलाती है वर्तनारूप कार्य की उत्पत्ति जिस द्रव्य का उपहार है, वही काल है। .... . - परिणाम, परिणमन का ही रूप है। परिणमन और क्रिया सहभावी है। क्रिया में गति आदि का समावेश होता है । गति का अर्थ है आकाशप्रदेशों में क्रमशः स्थान-परिवर्तन करना। किसी भी पदार्थ की गति में स्थान परिवर्तन के विचार उसमें लगने वाले काल के साथ किया जाता है। परत्व और अपरत्व अर्थात् पहले होना और बाद में होना अथवा पुराना और नया ये विचार भी काल के बिना नहीं समझाये जा सकते।
.. ध्यान में रखने की बात यह है कि जैन दर्शन में प्रत्येक द्रव्य को स्वतन्त्र माना गया है अतः परिणमन में काल को प्रेरक कारण न मानकर सहकारी निमित्त उदासीन कारण माना गया है। जिस प्रकार द्रव्यों की गति व स्थितिरूप क्रिया में धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय उपादान व प्रेरक निमित्त कारण न होकर उदासीन व सहकारी निमित्त कारण है व द्रव्य अपनी ही योग्यता से गति व स्थितिरूप .. क्रिया करते हैं, उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन में काल, उदासीन सहकारी निमित्त कारण है। इसके निमित्त से पदार्थ में प्रति क्षण नवनिर्माण व विध्वंस सतत होता रहता है। निर्माण व विध्वंस की यही क्रिया घटना
ओं को जन्म देती है। इस प्रकार काल ही पदार्थों के समस्त परिणमनों, क्रियाओं व घटनाओं का सहकारी कारण है। दूसरे शब्दों में काल पदार्थों के परिणमन, क्रियाशीलता व घटनाओं के निर्माण में भाग लेता है।
आधुनिक विज्ञान मीजैन दर्शन, में कथित उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार करता है। यथा:- आईन्स्टाइन ने देश और काल से उनकी
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