________________
जैन मुनियों के नामान्त पद या नन्दिया
भंवरलाल नाहटा
अनन्त चतुष्ठय विराजित आत्मा अपने विशुद्ध रूप में अरूपी और अनाभी है, परंतु देहधारी होने से उसकी पहचान के लिये नामस्थापन अनिवार्य है। चार प्रकार के निक्षेपों में नाम, स्थापना, द्रव्य
और भाव हैं । ये अकाटय सत्य माने गये हैं। अनादि काल से नाम रखने की परिपाटी चली आ रही है। भगवान ऋषभदेवकी माताने उनके गर्भ में आने पर वृषभ स्वप्न के अनुसार उनका नामकरण हुआ, क्योंकि चतुर्दश महास्वप्नों में प्रथम स्वप्न वही मरदेवी माताने देखा था। अन्य तीर्थंकरों के नाम भी घटनाओं के परिवेश में रखे गये थे, जैसे – महामारि शान्त होने से शान्तिनाथ, ऋद्धि-सम्पदा में वृद्धि होने से वर्द्धमान इत्यादि । कुछ नाम प्रकृति से, कुछ संस्कृति से, कुछ घटना विशेष से एवं कुछ परम्परागत देशप्रथा आदि से सम्बन्धित होते थे। जन्मसमय के ग्रह-नक्षत्रों की अवस्थिति भी इसमें प्राधान्य रखती थी। पाणिनी ने अष्टाध्यायी में नाम व पद आदि के सम्बन्ध में विशद विवेचन किया है। अपने अपने देश की भाषा, धर्म और जातिगत प्रथा, कालानुरूप संघप्रणाली देखते आर्य, मुनि, स्थविर, गणि आदि उपाधिसम्बोधन होता था। पहले जो प्राकृत भाषाके नामरूप थे वे उनके संस्कृत रूपों में प्रयुक्त होने लगे। फिर जब अपभ्रंश काल आया तो शब्दों में तदनुरूप परिवर्तन आ गया । व्यक्तियों के नामों में नागभट्ट को बोलचाल की भाषा में नाहड़, देवभट्ट को देहड़,
जै-हि 1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org