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'समाधिशतक'-एक अध्ययन
३८३ 'समाधिशतक' में आचार्यश्री ने इस प्रकार विविध विषयों पर विचार प्रस्तुत करते हुए जोर इस बात पर दिया है कि मनुष्यदेह का मोह त्यागे तभी मुक्ति की ओर अग्रसर हो सकता है ।
लगभग सो वर्ष पहले लिखी गई ये रचना भाषा की दृष्टि से इस लिए महत्त्वपूर्ण है कि यह उस गुजराती का रूप है, जिस में राजस्थानी का प्राचुर्य है। उस समय गुजरात और राजस्थान की सीमाएँ, भाषा की दृष्टि से लगभग एक थीं और हिन्दी का प्रभाव अधिक मात्रा में परिलक्षित होता है । प्रायः तत्कालीन सभी कवियों ने ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया है जो जन-जन के लिए सरल हो । अर्थात् भाषा प्रादेशिक से अधिक जनभाषा या लोकभाषा के निकट रही। इसे हम देशज भाषा भी कह सकते हैं । तत्कालीन गुजरात के कवियों में दयाराम, अखाजी, मीरा जैसे अनेक कवियों की भाषा ऐसी ही राजस्थानीमिश्रित गुजगती है। जिस प्रकार कबीर और नानक जैसे संत जिस जिस प्रदेश में गए, उस प्रदेश की लोकभाषा को अपनाते गये। इस प्रकार इस संत कवियों ने भी अपनी बात जनभाषा में कही।
गुजरात में जितने ही जैन मुनि या कवि उस समय हुए, उन सबमें इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग किया । कच्छ और सौराष्ट्र में इस राजस्थानी-मिश्रित गुजराती का प्रयोग अधिक हुआ। श्री हरीश शुक्ल ने अपनी थिसिस में अपनी सत्तरहवीं-अठारहवीं सदी के दो सो हिन्दी जैन कक्यिों का संशोधन कर के यह पुष्ट किया है कि इन कवियों ने हिन्दी में तत्कालीन अपनी आध्यात्मिक काव्यरचनाएं की। इसी प्रकार डॉ. रामकुमार आदि ने भी गुजरात के संतो की हिन्दी को देन में ऐसी भाषा में लिखने वाले कवियों की खोज की है। दयाराम ने तो अनेक ग्रन्थ भी लिखें हैं।
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