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'समाधिशतक ' - एक अध्ययन
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आत्मा को पाकर सहज प्रकाश को प्राप्त कर लेता है और संसार के जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाता है ।
आचार्य कहते हैं कि सच्चा ज्ञानी वही है जिसे कोई दुःख नहीं । जो आत्मस्थित होकर सहज सिद्धत्व प्राप्त कर लेता है । वह सुख के प्रकाश का अनुभव करता है और सर्वत्र कल्याण निहारता है । बुद्ध - जन कभी दु:ख-सुख में धीर - अधीर नहीं होता । सुख भी उसके लिए एक स्वप्न है ओर दुःख भी उसके लिए वैसा ही है । ऐसा ज्ञानी दुःख पाकर भी सुख की भावना भाता है और इस दुःख में ही वह जग के ज्ञान का क्षय करता है । जैसे कोमल फूलधूप में मुरझा जाते है, वैसे ही संसार के प्रति वह दुःख का अनुभव करता है । जैसे प्रचण्ड आग में गलकर सोना और भी उज्ज्वल बन जाता है वैसे ही सच्चा मुनि तो वही धैर्यशाली है जो दुःख की ज्वाला में और भी दृढ बनता है ।
इसी लिए कहा है कि व्यक्ति को शक्ति के अनुसार दुःख सहन करना चाहिए । दुःख में उल्लास से दृढतर होने वाला ही ज्ञान और चरित्र को प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार युद्ध में लड़ने वाला सैनिक आघात - प्रत्याघात को नहीं गिनता है वैसे ही प्रभु की उपासना में लगा हुआ उपासक दुःख की गिनती या परवाह नहीं करता । आगे उदाहरण देते हुए इस दुःख की महिमा का आचार्य वर्णन करते हैं कि जिस प्रकार व्यापारी व्यापार में पड़ने वाले दुःखों में भी सुखका अनुभव करता है, उसी प्रकार मुमुक्षु कष्टदायक क्रियाओं में सुख का अनुभव करता है । शरीर द्वारा की जाने वाली समस्त क्रियाएं, योग के अभ्यास की क्रियाएं हैं, लेकिन उसका फल तो बंधन से मुक्त कराने वाला ज्ञान ही है । ज्ञानी, क्रिया और ज्ञान दोनों की आराधना करता है, लेकिन. जो किसी एक को ही सर्वस्व मानता है वह अन्य है ।
उपाध्यायजी शास्त्र समर्थन के संबंध में कहते हैं कि मन, वचन, कर्म के योग से शास्त्रोंका समर्थन - अर्थात् वाचन और मनन करना
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