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'समाधिशतक'-एक अध्ययन
करके नीर-पुद्गल (संसार) को त्याग कर आत्महीन बनता है।
संसार पर ध्यान रखनेवाले को भित्र-शत्रु एवं अभिमान आदि में ऐसा रहना पड़ता है, परन्तु जिसने अपने पर ही ध्यान दिया है (स्वनिरीक्षण किया है) उसे जरूर मार्ग मिला जाता है। सत्य भी है कि जहाँ भ्रमीजीव संसार को ही सर्वस्व समझता है । वहीं आत्मज्ञानीका संसार तो एक मात्र शुद्ध स्वभाव ही सर्वस्व है । संसार की वासना अविद्यारूप है जो इस जीव को अनेक विकल्पों में फंसाकर अंधेकूप-अज्ञान में ढकेल देती है। संसारी जीव पुत्र-धन आदि की चाहना में आत्मा को भूल जाता है। यह जड़ संपत्ति है जो मोह के कारण सदैव के लिए प्रतिकूल है। संसार की जड़ता और मोह को संसार के भ्रमण का मूल कारण मानते हुए वे इसी लिए आगे सलाह देते हैं कि, जीव ! इस संसार की भ्रममति को छोड़ दो और अब अपने अंतर में देखों। (अन्तरदृष्टि बनो), ज्यों ही इस मोहदृष्टि को छोडेगे तभी आत्मा की गुणदृष्टि प्रकट होगी। अर्थात् वहिदृष्टि त्यागकर अन्तर्दृ 'टा बनने से ही आत्मा को समझने का गुण उत्पन्न होगा ।
संसार में रूप आदि का बाजार लगा है। इन्द्रियों के भोग में सब लगे हैं। चारों ओर लूटम्-लूट मची है । परन्तु दूसरी ओर आत्मद्रव्य के विषय में कोई दुविधा नहीं। चिदानंदस्वरूप आत्मा में खेलनेवाला सदैव प्रसन्न है क्यों कि वह जान गया है कि निजपद तो निज में ही है। अर्थात् मेरी आत्मा का आत्मविकास तो स्वयं मेरे अंतर में है। यहां भी कवि आत्मा की स्वयंपूर्ण स्थिति पर भार डालता है। आत्मा के ज्ञान-प्रकाश में भेद-विज्ञान को जाननेवाला यह ज्ञानी अग्राह्य वस्तु का ग्रहण नहीं करता और ग्राह्य का कभी त्याग नहीं करता। वह वस्तु के स्वभाव का जानकार होने से स्व
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