________________
३६८
..
जैन साहित्य समारोह
धर्म का अर्थ किसी वैयक्तिक ईश्वर के प्रति आस्था या पूजा के क्रिया-काण्डों तक सीमित है, तब तो यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति धार्मिक हुए बिना भी नैतिक हो सकता है। किन्तु, जब धार्मिकता का अर्थ ही सदाचारिता हो तो फिर यह सम्भव नहीं है कि बिना सदाचारी हुए कोई ब्यक्ति धार्मिक हो जाये। जैन दर्शन हमें धर्म की जो व्याख्या देता है वह न तो किसी वैयक्तिक ईश्वर के प्रति आस्था की बात कहता है और न धर्म को कुछ क्रिया-काण्डों तक सीमित रखता है। उसने धर्म की परिभाषा करते हुए चार दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं
(१) वस्तु का स्वभाव धर्म है; (२) क्षमा आदि सद्गुणों का आचरण धर्म है;. (३) सम्यक्ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही धर्म है; और
(४) जीवों की रक्षा करना ही धर्म है। . यदि हम इन परिभाषाओं के सन्दर्भ को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि धार्मिक होना और नैतिक होना यह दो अलग-अलग तथ्य नहीं है। धर्म नैतिकता की आधारभूमि है और नैतिकता धर्म की बाह्य अभिव्यक्ति । धर्म नैतिकता की आत्मा है और नैतिकता धर्म का शरीर हैं। अतः जैन विचारक धार्मिक और नैतिक कर्तव्यता के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींचते हैं। उनके अनुसार आन्तरिक निष्ठापूर्वक सदाचार का पालन करना अर्थात् नैतिक दायित्वों या कर्तव्यों का पालन करना ही धार्मिक होना है।
जैन धर्म में हम नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का व्यावहाकि पक्ष : . जैन धर्म में हम नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता में कोई विभाजक रेखा खींचता ही चाहे तो उसे सामाजिक कर्तव्यता और वैयक्तिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org