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भारतीय साहित्य को जैन साहित्य की देन प्रचलित नहीं हैं। इसी तरह बहुत से शब्दो का मूल व सही अर्थ क्या था यह भी जैन कवियों की रासादि रचनामें से स्पष्ट हो जाता है। अर्थात् प्रान्तीय भाषाओं के लाखो शब्दो हजारो, कहावतों और मुहावरो का संकलन इन जैन रचनाओं से सहज ही में किया जा सकता है। कौन से शब्द का मूल रूप क्या था ? और कौनसा कहावत या मुहावरों कितना पुराना है ?-यह सब प्राप्त जैन रचनाओं से ही ठीक से मालूम हो सकता है । इस दृष्टि से भारतीय साहित्य जैन साहित्य का योगदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है।
अब मैं कुछ ऐसे जैन ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय दे रहा हूँ जो भारतीय साहित्य ही में नहीं, विश्वसाहित्य में भी अद्वितीय, अजोड हैं । ये ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुके हैं पर इनका महत्त्व जैन समाज को भी मालूम नहीं है।
प्राकृत भाषा का एक कुषाणकालीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है'अंगविज्जा' अर्थात् 'अंगविद्या' । किसी एक विषय पर प्राचीन काल में भी कितना विस्तृत और गहन लिखा जा रहा है उसका यह ग्रन्थ उत्कृष्ट नमूना (ज्वलंत उदाहरण) है। केवल अंगविद्या पर इतने विशद और विस्तृत रूप से इसमें प्रकाश डाला गया है कि इस विषय का विश्वभर में और कोई ग्रन्थ नहीं है । यद्यपि इस प्राचीन विज्ञान की 'आमना' परंपरा तो अब सुरक्षित नहीं रही, इसी लिए इस ग्रन्थ का सही व पूरा अर्थ या रहस्य ज्ञात नहीं किया जा सकता । इसमें बहुत से ऐसे टेकनिकल (विशेष) शब्द प्रयुक्त है जिन का अर्थ किसी भी कोशग्रन्थ में नहीं मिलता। महत्त्वपूर्ण और प्राचीन ग्रन्थों में सांस्कृतिक सामग्री पर्याप्त परिमाण में प्राप्त है। अतः डा. वासुदेव शरण अग्रवाल तथा डॉ. मोतीचन्द जैसे ख्याति प्राप्त विद्वानांने इसकी महत्ता पर संक्षिप्त प्रकाश डालते हुए इसे अद्वितीय ग्रन्थ बतलाया है। स्व. पूज्य मुनि श्री पूण्यविजयीने इसे सम्पादित करके प्राकृत साहित्य परिषद से प्रकाशित करवा दिया ।
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