________________ Homage to Vaisali दिया। वर्षकार गंगा पार हो वज्जी-भूमि में जाने लगा, तो कुछ वज्जियों ने कहा- "ब्राह्मण बड़ा मायावी है, गंगापार न उतरने दो।" लेकिन लिच्छवि वर्षकार के जाल में फंस गये और उसे अपने यहां शरण ही नहीं दी बल्कि अपना विनिश्चय-महामात्य (न्यायाधीश) बना लिया / वर्षकार ने तीन वर्ष तक वैशाली का नमक खाया और उसका प्रतिशोध उसने अपने विश्वासघात द्वारा किया। तीन वर्ष के भीतर उसने वैशालीवालों में ऐसी फूट डलबा दी कि "दो आदमी एक साथ नहीं जा सकते थे।" वर्षकार ने अपने मालिक को सूचना दी और फूट के कारण निर्बल वज्जी लोगों को अप्रयास मगधराज ने दास बना लिया। ___ वैशाली के पतन का यह समय बौद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध-निर्वाण (483 ईसा पूर्व) से तीन साल बाद है। वैशाली इतने दिनों तक अनाथा रही, किन्तु इसी के विस्तृत इतिहास ने पहले-पहल भारतीयों को बतलाया कि हम सदा निरंकुश राजाओं के जूओं को ही नहीं ढोते रहे, बल्कि हमारे यहाँ भी अपने प्रजातन्त्र थे। वैशाली प्रजातन्त्र बहुत शक्तिशाली था। बुद्ध के समय के भारत के सबसे बड़े राज्य कोसल-जो गंडक, गंगा और हिमालय की सीमाओं से घिरा था - का राजा प्रसेनजित एक बार बहुत घबड़ाया हुआ था। उसे देखकर बुद्ध ने पूछा-"क्या महाराज ! तुम पर राजा मागध श्रेणिक बिम्बसार या वैशालिक लिच्छवि तो नहीं बिगड़े हैं ?" लिच्छविओं के कोप से कोसल-राज्य का होश-हवास बिगड़ सकता था, यह लिच्छवियों की शक्ति का परिचय देता है / वैशाली गण के सीमान्त पर दो ही प्रबल राजशक्तियां थीं-दक्षिण और पूर्व में मगध और पश्चिम में कोसल / पच्छिमी सीमा पर मही (आधुनिक गंडक) बहती थी, इसके लिये साक्षात् प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन वज्जी के पश्चिम मल्लों का संघराज्य था, जो कोसल राज्य के आधिपत्य को स्वीकार करते अपनी संघप्रणाली को किसी-न-किसी तरह सुरक्षित रखे हुए था / मल्ल और लिच्छवि दोनों पड़ोसी जातियों की सीमा गंडक हो रही होगी, लेकिन उस समय गंडक (मही) की धारा वहीं नहीं थी, जहाँ कि वह आज है। सोनपुर, शीतलपुर, मढ़ौरा होती जो नदी आज कल छपरा जिले में बहती है, उसकी निचली धारा आज भी मही के नाम से प्रसिद्ध है / हम कह सकते हैं, कि वज्जी की प्राचीन भूमि वही थी, जिसकी सीमाएं आज कल की भोजपुरी, मगही और अंगिका (मुंगेर की छिका-छिकी) भाषा से सीमित थी, इतने अपवाद के साथ कि वर्तमान चम्पारन भी प्राचीन वज्जीगण के भीतर पड़ता था। वर्तमान भारत के लिये यह भूमि अत्यन्त पुनीत है। ढाई हजार वर्ष बाद भारत फिर अपना संघराज्य स्थापित करने जा रहा है। उसे अपने यशस्वी वैशालीगण और उसकी परम्परा का अभिमान होना आवश्यक है। वस्तुतः हमारे ऊपर निरंकुश राज-शासन की कालरात्रि में वैशाली और यौधेय दो ही जनतन्त्र के प्रकाश स्तम्भ थे, जो यह भी सिद्ध करते रहे कि प्रजातन्त्र-शासन-प्रणाली हमारे लिए बिल्कुल नयी चीज नहीं है। सहस्रों वर्षों से देशी और विदेशी निरंकुश शासक बराबर यही प्रयत्न करते रहे, कि हम अपनी प्रजातान्त्रिक परम्परा को भूल जायें। वह बहुत हद तक अपने इस कार्य में सफल भी हुए, किन्तु पुरातत्त्व