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________________ 15 बंगली की महत्ता . ही दूर देश के इमानों के खयालात को पेश करते हैं। किसने ही दूर देश के इन्सानों के हाथ को बनायी हुई वस्तुओं को हमारे सामने ला देते हैं। यही नहीं, ये कितने ही साधुओं और न्यासियों को, कितने ही पीर, पैगम्बर और फकीरों को-जो सुदूर प्रान्तों के विभिन्न . पर्वतों में बैठ कर अपनी साधना और तपस्या के बल से धर्मजगत् के अनेक ऊँचे वृक्षों के फलों .. को तोड़ कर चखते हैं हमारे सामने ला देते हैं। इस तरीके से रेलगाड़ी और हवागाड़ी, टेलीग्राफ और हवाई जहाजों के इस देश में आने के बहुत पहले से नाना प्रकार के नवीन माव और आदर्श, नाना प्रकार की बहुमूल्य शान्तिवाणियां, मोक्षलाभ के उपदेश-काल और स्थान की विस्तृत दूरी के अडंगों को पार करके-आते-जाते रहे हैं। भारतीय संस्कृति के प्रचार के इतिहास में हमारे इन सारे प्रचारों और धार्मिक उत्सवों ने. तीर्थयात्रियों के जमघट और उनके विश्रामनिवास तथा धर्मशालाओं के बीच से. ऊँचे खयालात और आदर्शों पर आने-जाने का रास्ता सहल कर दिया है। हमारे जुलाहों के तात की मकू जैसे कपड़े बुनते समय एक तरफ से दूसरी तरफ दौड़ती है, वैसे ही हमारे जातीय जीवन के रंगीन डोरों से धवलित कपड़ों की उस तसवीर को युग-युग की परम्परा ने अमर कर रखा है। प्राचीन साहित्य में-जैनधर्म और बौद्धधर्म के पुराण, उपपुराण, अवदान और कहानियों में, और प्राचीन नाटक तथा कथा-साहित्य में-हम लोग मेलों और उत्सवों का विचित्र और रंगीन वर्णन पाते हैं, जिससे हमें मालूम होता है कि साधारण इन्सानों के अन्धकारमय नीरस जीवन में ये सारे मेले और उत्सव कभी-कभी बीच बीच में कैसे आनन्द और रंग का दीपक जला देते हैं, दुखी के दिल में, गरीब की आत्मा में और आनन्दहीन इन्सानों के हृदय में कैसी सुन्दर खुशी का फुहारा पैदा कर देते हैं, और इन्सानों के मन के उल्लास और इरादे कैसे अजीब नाच-गानों के छन्द में नयी जिन्दगी पाकर उछल उठते हैं। "मातुपोसक जातक" नाम की एक बौद्ध कहानी में बुद्धदेव के पूर्वजन्म की कथा है, जिसमें एक विशेष प्रकार के उत्सव का वर्णन आया है। तब ब्रह्मदत्त काशी के राजा थे और बोधिसत्त्व ने हिमालय में एक बड़े हाथी के रूप में जन्म लिया था। करण्ड मठ में ब्रह्मदत्त ने बोधिसत्त्व की हाथी की शकल की मूर्ति की स्थापना की और विभिन्न प्रकार की पूजा और सत्कार के द्वारा उस मूर्ति को सम्मानित किया। उस दिन से प्रति वर्ष एक निर्धारित पर्व के दिन यह हस्ति-उत्सव मनाने के लिए सारे हिन्दुस्तान के लोग इकट्ठे होकर इस उत्सव को सफल करते थे। एक और प्राचीन उत्सव की बात हमलोग इतिहास के पन्नों में पाते हैं। यह उत्सव जैन और बौद्ध धर्म के आने के बहुत पहले से ही अनुष्ठित होता चला आया है। इस उत्सव का नाम है 'शालभंजिका"। एक खास दिन में शालवृक्ष के पुष्पयुक्त पत्तों को तोड़ना ही इस उत्सव का मूल हुआ। प्राचीन बौद्ध साहित्य में इस उत्सव की रंगदार कहानियों का वर्णन हमें प्रायः मिलता है और कवि राजशेखर की 'विद्धशालभंजिका' नामक नाटिका में हमें इस उत्सव का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। बौद्ध इतिहास के प्राचीन शिल्पकेन्द्र अमरावती में पत्थर की चट्टानों पर इसके मनोरम शिलाचित्र खुदे हुए हैं।
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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