________________ Homage to Vaisali सम्मिलन-भूमि की सृष्टि करके भारतीयों में विस्तृत हो रहा है- जिस सम्मिलन भूमि में ऊंच. मीच, अमीर और गरीब भरपेटवाला और भूखा, बूढ़ा और जवान, गम्भीर और चलते-पुणे इन्सान विविध असंख्य भीड़ों में धक्के पर धक्के खाकर भी परम्परा से जमा होते चले आ रहे है-जिस मिलन-भूमि में विभिन्न दायरे के शान, बुद्धि और इल्म वाले नर-मारी बहुत निकट और घनिष्ट भाव से मिलने का सुयोग पाकर अपने-अपने जीवन, चिन्ता और मन की भावनाओं का विनिमय करके मनुष्यता की कमी को परिपूर्ण कर लेते हैं। इस प्रकार के सम्मेलन में खरीद-फरोख्त कारीगरों के हाथ की बनायी नाना प्रकार की शिल्पवस्तुओं और उस्ताद कलाकारों द्वारा बनायी हुई मनोहर कलावस्तुओं तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि विभिन्न सहृदय लोगों के दिलों की खरीद-बिक्री और हृदयों की तिजारत के कारण इन असंख्य नर-नारियों के दिलों का वास्तविक सम्मेलन सफल हो उठता है। इस तरीके से नाना प्रकार के खिलौनों और गुड़ियों को बेचने और खरीदने के बीच से, देवी-देवताओं की मूर्ति और धर्मसाधना के उपकरण के बीच से, बहुत से खेल और आनन्द की हिलोरों के बीच से, अनेक धर्म-ग्रन्थपाठ एवं आनन्द और दिल्लगी के बीच से, "सिताबों-कलाबों' के तमाशों और 'नागरदोला' की आनन्दमयी हिलोरों के बीच से, नाच और गान के हावभाव और आँखों के इशारों के बीच से, विभिन्न श्रेणी के इन्सानों के दिलों में मजबूत दोस्ती का पक्का पुल तैयार हो जाता है। .... हमलोग जानते हैं कि हमारा भारतवर्ष बहुत दूर तक फैला हुआ है और नाना सूबों का एक संगठित महाप्रदेश है, जिसके चारों ओर है अनन्त आसमान और फैली हुई है अनन्त विस्तृत जमीन / इतने लम्बे फासले को पार करके इन्सान और इन्सानों की चिन्ताधारा हमारे घरों तक पहुँचने में काफी समय लेती है और अनेक युगपरम्परा से यह बात चली आ रही है। गर्द और कीचड़ से भरे हुए सारे दूर-दूर के रास्ते पार करके इन्सानों के दिल की बातें-बैलगाड़ी और ऊंटों की कतार की धीमी रफ्तारों से और कभी थके हुए तीर्थयात्री और पस्तहिम्मत मुसाफिर के कन्धे पर चढ़ कर-धीरे-धीरे एक सूबे से दूसरे सूबे में आयाजाया करती हैं। मुसाफिर और तीर्थयात्री मोक्ष देनेवाले प्राचीन नगरों के विभिन्न मन्दिरों में देवी-देवताओं के दर्शन के लोम से, मोक्ष और बहिश्त के रास्ते पर आगे बढ़ने की आशा और इरादे को लेकर, युग-युग से जिन सारे तीर्थयात्रा के रास्तों पर आया जाया करते हैं, वे सारे तीर्थस्थान परस्पर एक दूसरे से फासले पर और अनजान लोगों की भीड़ों से परिपूर्ण हैं। इन सब अनजान और अपरिचित लोगों के साथ जान-पहचान करने का एक सीधा और साफ रास्ता है। "यह रसना बस में करो, धरो गरीबी भेस / ___ सोतल बोली ले चलो, सभी तुम्हारा देस // " हमारे देश के ये सारे प्राचीन मेले और धार्मिक उत्सव-जो एक लम्बे जमाने से, पर्व-पर्व में, ऋतु-ऋतु में नियमित रूप से गांव-गांव और शहर-शहर में होते हुए चले आ रहे हैं-फैली हुई लम्बी दूरी को खतम कर देते हैं और हमारे रहने के घर के सामने कितने