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________________ ADO Homage to Vaisalh; उत्खनन के क्रम में अग्निमित्र की मुहर मिली है। संभव है शुंगवंशीय सम्राटों के प्रभुत्व का अवसान होने पर वैशाली के लिच्छवि साढ़े तीन सौ वर्षों बाद पुनः स्वतंत्र ही नहीं हो गए, अपितु मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र पर भी अधिकार कर लिया। कई आधुनिक .. इतिहासविद् इसकी उदात्त कल्पना करने में संकोच नहीं करते कि वैशाली और पाटलिपुत्र . दोनों का राजा एक व्यक्ति हो गया, जो लिच्छवि था। ईसा-पूर्व 150 से ईसवी सन् 100... तक का यह समय वैशाली के चहुमुखी उत्थान की दृष्टि से . अद्भुत था। वैशाली में हाल .. के वर्षों में की गई खुदाई के आलोक में यह कहा जा सकता है कि धार्मिक समन्वय और कलासमृद्धि की दृष्टि से यह वैशाली के गौरव का पुनरावर्तन हुआ। बौद्ध, जैन एवं हिन्दू . धर्म साथ-साथ फूलते-फलते रहे / अनेक कलात्मक प्रतिमाओं, चैत्यों, स्तूपों और विहारों का . निर्माण इसी युग में हुआ। कुषाण सम्राट कनिष्क ने वैशाली पर पहली सदी में अधिकार : किया। पर उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों से लिच्छवियों ने वैशाली को मुक्त कर लिया। सन् ईसवी की आरम्भिक सदियों में वैशाली के लिच्छवियों की प्रतिष्ठा शिखर का स्पर्श कर रही थी, तभी तो चौथी सदी में घटोत्कच गुप्त (300-319 ई०) के पुत्र महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त प्रथम ने इन्हीं लिच्छवियों की कुमारदेवी नामक एक राजकुमारी से विवाह कर अपने कुल को गौरवान्वित किया। इससे चन्द्रगुप्त की राजनीतिक शक्ति और ऐश्वर्य का ऐसा विस्तार हुआ कि इस विवाह-प्रसंग को एक प्रकार के सोने के सिक्के पर उत्कीर्ण कराया जिसमें 'कुमारदेवी' और 'लिच्छवयः' उत्कीर्ण है। चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र सम्राट समुद्रगुप्त (335-375 ई.) को लिच्छविदौहित्र होने का गौरव अनुभव होता था। यही कारण है कि गुप्त प्रशस्तियों में समुद्रगुप्त के लिए निरन्तर 'लिच्छवि दौहित्र' विशेषण का प्रयोग गौरवपूर्वक हुआ है। स्मिथ महोदय की तो यह स्पष्ट मान्यता है कि लिच्छविसम्बन्ध के फलस्वरूप ही चन्द्रगुप्त प्रथम को पाटलिपुत्र पर अधिकार प्राप्त हो सका। उसका राजनीतिक प्रभुत्व बढ़ा और उसे 'महाराजाधिराज' का विरुद धारण करने की क्षमता हासिल हो सकी। गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष काल में वैशाली महाजनपद स्वतंत्र गणराज्य नहीं रह गया था। वह महान गुप्त साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया। यही कारण है कि समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में 'नेपाल' का उल्लेख है पर 'वैशाली' का नहीं / वैशाली में उत्खनन के क्रम में गुप्त शासन काल से संबद्ध बहुमूल्य ऐतिहासिक सामग्री मोहरों के रूप में प्राप्त हुई है. उनपर छोटे-छोटे अभिलेख अंकित हैं। उत्तर बिहार के लिए 'तीरभुक्ति' (तिरहुत) यह अभिज्ञा पहले-पहले गुप्तकाल में ही भारम्भ हुई। तीरभुक्ति प्रदेश की राजधानी वैशाली थी। मुहरों पर 'तीरभुक्ति' और 'वैशाली' दोनों ही नाम अंकित है। वैशाली जनपदवासियों का जीवन समन्वयात्मक सामाजिक संस्कृति के विकास के लिए पूर्णतया अब भी समर्पित था। खुदाई में प्राप्त चीजें इसी धारणा का समर्थन करती हैं। कम्मन छपरा गांव में स्थित चौमुखी महादेव की मूर्ति संभवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल की है, क्योंकि चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की स्वर्णमुद्रा यहां मिली थी। अभिलेख गुप्त लिपि में प्रांजल संस्कृत भाषा में अंकित था जो काल-प्रवाह में क्षतिग्रस्त हो गया है।
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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