________________ वैशाली की गरिमा 401 तथागत के महापरिनिर्वाण के उपरांत जिन सौभाग्यशाली आठ राज्यों को उनका पवित्र भस्मावशेष मिला, उनमें लिच्छविगण या वृजिसंघ भी था। इस पवित्र बुद्धावशेष को लिच्छवियों ने स्तूप बनाकर सुरक्षित किया। सदियां गुजर गई, पर जब 1958 ई. में स्व. डॉ. अल्तेकर के निर्देशन में वैशाली के उत्खनन का कार्य पुनः आरम्भ हुण तब भस्मावशेष पात्र में सुरक्षित पाया गया / डॉ० अल्तेकर एवं अन्य प्राचीन भारतीय इतिहास- . विदों की मान्यता है कि यह अवशेष तथागत का ही है। उनका भिक्षापात्र उनकी पावन स्मृति के रूप में लगभग चार-पांच सौ वर्षों तक अमूल्य निधि के रूप में वैशाली में सुरक्षित रहा। ऐसा अनुमान किया जाता है कि जब कुषाण सम्राट् कनिष्क ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया तब पाटलिपुत्र से अश्वघोष को और वैशाली से तथागत के भिक्षापात्र को ले गया / यह भिक्षापात्र सम्भवतः पुरुषपुर (पेशावर, पाकिस्तान) में निर्मित महान् स्तंभ के नीचे स्थापित किया, जिसे ह्वेनसांग तक ने देखा था। तथागत के महापरिनिर्वाण के उपरांत भी सदियों तक वैशाली बौद्धधर्म की विविध कार्यप्रवृत्तियों का उत्तर भारत में प्रमुख केन्द्र बनी रही। यही कारण है कि तथागत के परिनिर्वाण के तुरन्त बाद बौद्धों की प्रथम संगीति महाकाश्यप की अध्यक्षता में राजगृह में सम्पन्न हुई ; उसके ठीक एक सौ वर्षों के बाद बौद्धों की द्वितीय (सप्त शतिका) संगीति का समायोजन आनन्द के परमप्रिय शिष्य, एक सौ बीस वर्षों के स्थविर सर्वकामी की अध्यक्षता में वैशाली में हुआ। स्थविर रैवत प्रश्नकर्ता थे, व्याख्याता थे सर्वकामी / निर्वाणोपरांत सौ वर्षों में धर्म और संघ में दस वस्तुओं (सोना-चांदी का व्यवहार, सुरामेरय पान, अतिरिक्त असमय भोजन आदि) को लेकर वैशालिक वज्जिपुत्तक भिक्षुओं में जो घोर मतभेद उत्पन्न हुआ था उसका निराकरण किया गया। संघ ने निर्णय किया कि दस वस्तुएं धर्म-विरुद्ध, विनय-विरुद्ध और शास्ता के शासन से बाहर की हैं / मौर्य शासन काल में वृजिसंघ की संप्रभुता सीमित हो गई परन्तु बौद्धधर्म के शक्तिशाली केन्द्र के रूप में वैशाली का महत्त्व तब भी खंडित न हुआ। यही कारण है कि इतिहास-प्रसिद्ध मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्धधर्म स्वीकार करने के बाद धर्म-यात्राएं की, बुद्ध और बौद्धधर्म से संबद्ध पवित्र स्थलों के दर्शन किए, स्तूपों का निर्माण किया और स्तंभों की रचना कराकर उनपर तथा चट्टानों पर बुद्ध के उपदेशों के अभिलेख अंकित कराए, जो लोरियानंदन गढ़ से गंधार तक के विशाल क्षेत्र में फैले थे। स्तंभनिर्माण की उत्तमोत्तम शैली में निर्मित एक अशोक स्तंभ वैशाली में यथावत् खड़ा है जिसके शिखर पर उत्तयभिमुखी सिंह अवस्थित है और चारों ओर से घंटे का मनोहारी अलंकरण है। स्तंभ बाईस सौ वर्षों से आघात-प्रत्याघातों के थपेड़ों को सहता शास्ता की तरह अजेय भाव से निर्भीकता के साथ खड़ा है। इसमें कोई अभिलेख अंकित नहीं है। पास ही एक स्तूप भग्नावशेष के रूप में खड़ा है। मौर्य युग के प्रताप के अस्त होते-होते लगता है लिच्छवि गणराज्य पर शुंगवंशी सम्राट् पुष्यमित्र और अग्निमित्र का प्रभत्व कायम हो गया। वैशाली के ध्वंसावशेषों के