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________________ भगवान महावीर और उनका लोक-कल्याणकारी सन्देश 101 को उन्हें गोषषि, शास्त्र, अभय और माहार इन चार प्रकार के लोक-हितकारी दानों में लगा देना चाहिए। अर्थात संपस मृहस्थ का उन्होंने यह कर्तव्य बतलाया है कि वह अपनी संपत्ति का सदुपयोग लोगों की प्राण-रक्षा के उपायों में, शिक्षा और विद्या के प्रचार में, रोगव्याषियों के निवारण में तथा दीन-दुःखियों को भोजन-वस्त्रादि प्रदान करने में कर डाले। आज आचार्य विनोबा भावे अपने भूदान-यज्ञ के आन्दोलन द्वारा जिस मनोवृत्ति का निर्माण करने का प्रयत्न कर रहे हैं उसी वृत्ति के निर्माण का उपदेश भगवान् महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व दिया था। यही नहीं, भगवान् के उस शासन को उनके अनुयायियों ने आज से डेढ़ हजार वर्ष पूर्व ही 'सर्वोदय-तीर्थ' का नाम भी दिया है। आचार्य समंतभद्र ने भगवान् महावीर के सर्वोदय-तीर्थ के जो लक्षण बतलाये हैं, वे सर्वोदय-भावना की वृद्धि और पुष्टि में आज भी बहुत सहायक हो सकते हैं। जब सभी विचार-धाराओं का समन्वय किया जाये, किसी एक मत या दल की पुष्टि और पक्षपात न किया जाये, किन्तु समय और आवश्यकतानुसार गौण और मुख्य के भेद से एक या दूसरी बात को प्रधानता या अप्रधानता दे दी जाये और दृष्टि रखी जाये सब प्रकार की जन-बाधाओं को दूर करने की तथा जोर दिया जाये, न्याय और नीति के शाश्वत् सिद्धान्तों पर, तभी सर्वोदय-तीर्थ की सच्ची स्थापना हो सकती है। इस सर्वतोमुखी, सर्वहितकारी कल्याण-भावना का विस्तार भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त सिद्धान्त में पाया जाता है, जिसके द्वारा सब प्रकार के मतभेदों और विरोषों को मिटाकर एकत्व और सहयोग की स्थापना की जा सकती है। क्या ही अच्छा हो, यदि आज का विरोधी विचारों के कारण सर्वनाश की ओर बढ़ता हुआ मानव-समाज भगवान् महावीर की अनेकान्तात्मक समन्वयकारी वाणी को समझकर उससे लाभ उठाए / आज संसार में चारों ओर नर-संहार की आशंका फैल रही है। युद्ध के बादल बारंबार उठ-उठकर गर्जन-तर्जन कर रहे हैं, और जिन महाभयंकर प्रलयकारी अस्त्र-शस्त्रों का आज के विज्ञान द्वारा आविष्कार हुआ है, उनके नाम और गुण सुन-सुनकर ही निरपराष नर-समाज कॉप-कांप उठता है / ऐसे समय में हमारे देश की राजनीति को निर्धारित करनेवाले पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जो पंचशील की घोषणा की है, वह भारतीय संस्कृति के सर्वथा अनुकूल एवं भगवान महावीर द्वारा बतलाये गये अहिंसा-प्रधान मार्ग का पूर्णतः अनुकरण है / खम्मामि सव्व-जीवानं सव्वे जीवा खमन्तु मे।। मेत्ती मे सव्व-भूदेसु वेरं मज्झ न केनवि // __ सब जीवों से, देशों और राष्ट्रों से हमारा कोई विद्वेष नहीं, और हम चाहते हैं कि वे सब जीव, देश और राष्ट्र हमसे भी कोई विद्वेष न रखें। सबसे हमारी मित्रता है, वैर किसी से भी नहीं / परस्पर आक्रमण नहीं करना, दूसरे की गति-विधि में व्यर्थ हस्तक्षेप नहीं करना, मिलकर रहना, सहयोग रखना, जीना और जीने देना इत्यादि समस्त भावनाएं अहिंसावृत्ति के व्यावहारिक रूप ही तो हैं, जिसे पुष्टि देकर संसार भर में फैलाना तथा व्यक्तियों, समाजों और राष्ट्रों के जीवन में उतारना हम सबका महान् पुनीत कत्र्तव्य होना चाहिए / यही भगवान् महावीर की जन्म-जयन्ती मनाने का सच्चा फल होगा।
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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