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________________ 100 Homage to Vaisali के निषेध का उपदेश दिया है। शराब पीकर मनुष्य भूल जाता है कि वह कौन है और अन्य जन कौन कैसे हैं। इसी से शराबी का आचरण अविवेक और निलंज्जतापूर्ण हो जाता है, जिससे वह नाना प्रकार के भयंकर अपराध कर बैठता है। धर्माचार्यों ने सदैव मद्य-पान को पाप बतलाया है। आज सौभाग्य से हमारी राष्ट्रीय कांग्रेस तथा सरकार भी मद्यपान के निषेष का प्रयत्न कर रही हैं। उनके इस पवित्र कार्य में सभी विवेकी और धार्मिक व्यक्तियों को सहयोग प्रदान करना चाहिए। मांस-भोजन का निषेध मद्य-निषेध से बहुत बड़ी समस्या है, क्योंकि उसका संबंध आदत के अतिरिक्त भोजन-सामग्री की कमी से भी है / तथापि इस संबंध में हमें प्रकृति के स्वभाव और मानवीय संस्कृति के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए। प्रकृति में जो प्राणी मांस-मक्षी हैं, जैसे शेर, व्याघ्र इत्यादि, वे कर-स्वभावी और निरुपयोगी पाये जाते हैं। शिक्षा के योग्य, उपयोगी और मृदु-स्वभावी वे ही प्राणी सिद्ध हुए हैं, जो मांस-भोजी नहीं हैं - शुद्ध शाक-मोजी हैं-जैसे हाथी, घोड़ा, ऊंट, गाय, बैल, मैंस इत्यादि / एक वैज्ञानिक शोष के अनुसार मनुष्य-जाति का विकास वानरों से हुआ है, और जैसा कि हम भली भांति जानते है, वानर शुद्ध शाक और फल-भक्षी होता है। प्राणिशास्त्र के विज्ञाता बतलाते हैं कि मनुष्य के दांतों की अथवा उसके हाथ-पांवों की रचना मांस-भक्षी प्राणियों जैसी नहीं है। इसी से मांस-मोजी मनुष्यों के दांत जल्द खराब हो जाते हैं और उससे कई बिमारियां भी उत्पन्न हो जाती हैं, जिनसे शाक-भोजी मनुष्य बहुधा बचा रहता है। अतएव भगवान महावीर के अनुयायियों का कर्तव्य है कि वे इन वैज्ञानिक तत्त्वों और शोधों के प्रचार द्वारा तथा शाकभोजन की सुविधाएं उत्पन्न करने के प्रयत्नों द्वारा मांस-मोजन की ओर से मनुष्य की रुचि को हटाने का आयोजन करें। अन्न और फलों का उत्पादन बढ़ाना तथा शाक-भोजनालयों की जगह-जगह स्थापना और उनमें रुचिकारक और सस्ते शाकमय खाद्य-पदार्थों को प्रस्तुत करना इस दिशा में उचित प्रयत्न होंगे। ऊपर जो भगवान महावीर द्वारा बतलाये गये हिंसा आदि पांच पाप कह आये हैं, उनमें अन्तिम पाप का कुछ विस्तार से वर्णन करना आवश्यक है। भगवान ने स्वयं राजकुमार का वैभव छोड़कर अकिंचन व्रत धारण किया था। उन्होंने गृहस्यों को यह उपदेश तो नहीं दिया कि वे अपनी समस्त धन-सम्पत्ति का परित्याग कर दें, किन्तु अपने लोम और संचय पर कुछ मर्यादा लगाना उन्होंने आवश्यक बतलाया। संसार में जितने जीवधारी हैं, उनके खाने-पीने और सुख से रहने की सामग्री भी वर्तमान है। किन्तु मनुष्य में जो अपरिमित लोम बढ़ गया है, उसके कारण ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है कि प्रत्येक मनुष्य या जन-समुदाय संसार की समस्त सुख-सम्पत्ति पर अपना अधिकार जमाना चाहता है। इसमें संघर्ष और विद्वेष अवश्यंभावी है। महावीर भगवान् ने इस आर्थिक संघर्ष से मनुष्य को बचाने के लिए ही परिग्रह-परिमाण पर बड़ा जोर दिया है। और गृहस्थों को इस बात का उपदेश दिया है कि वे अपनी आवश्यकता से विशेष अधिक धन-संचय न करें। यदि अपना कर्तव्य करते हुए न्याय और नीति के अनुसार धन की वृद्धि हो ही, तो उस अतिरिक्त धन
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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