________________ 380 अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ भाई केशवलाल की दुकान थी। वे जैन धर्म का विधिवत पालन करते थे। परमार क्षत्रिय भाई अपनी जीवनावश्यक चीजें खरीदने के लिए सोमचन्द्र भाई की दुकान पर आते-जाते रहते थे। वे उनकी सरलता, निष्कपटता एवं धार्मिक जिज्ञासा से प्रभावित हुए। उन्होंने सोचा यदि इन लोगों को जैन धर्म की महिमा बतायी जाए तो अवश्य शुभ परिणाम आ सकते है। एक दिन उन्होंने सालपुरा गांव के सीताभाई नाम के व्यक्ति से जो उनके अन्तरंग मित्र भी थे जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों की चर्चा की। वे जैन धर्म से बहुत प्रभावित हुए और स्वयं जिन शासन को समर्पित हो गए। सीताभाई ने जैन धर्म की महानता अपने अन्य परमार क्षत्रिय भाईयों को बताई और वे जैन होत गए। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि परमार क्षत्रिय कितने धर्म प्रेमी और जिज्ञासु थे। उनमें अहिंसा, सत्य, दया, प्रेम और मैत्री के बीज पहले से ही पड़े हुए थे। केबल उन्हें संवर्धित करने की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता को सोमचन्द्रभाई ने समझा और पूरी की। परमार क्षत्रियवंश के आद्य जैन दीक्षित और उनसे प्रभावित होकर सालपुरा, डुमां, झांपा और सानतलानड़ा आदि गांवों के कुछ परिवारों ने जैन धर्म को स्वीकार किया और इस तरह. परमार क्षत्रिय जैनों की संख्या दो सौ अस्सी हो गई। इन दो सौ अस्सी भाइयों में सालपुरा के रणछोड़भाई गोपालदास नाम: के सद्गृहस्थ भी थे। उनकी पत्नी का नाम बालूबहन था। उनके घर ई. सन् 1923 में एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ। जिनका नाम उन्होंने मोहनकुमार रखा। कुमार मोहन ने प्रारम्भिक अक्षरज्ञान गांव की छोटी सी स्कूल में प्राप्त किया। ग्यारह वर्ष की अवस्था में वे सालपुरा से बाईस कि.मी. दूर डभोई में पंन्यास श्रीरंगबिजयजी महाराज के पास चले गए। वहाँ उन्होंने जैन धर्म का प्राथमिक ज्ञान प्राप्त किया। ई.सन् 1936 में पंन्यास श्रीरंग बिजयजी की प्रेरणा से बोडेली में