________________ अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ 357 है। अत: सभी धर्म ईश्वर की मान्यतावाले आस्तिक धर्म है। इस दृष्टि से ईश्वर को मानने का आधार धर्म पर है, और धर्म को मानने का आधार भी ईश्वर पर है। दोनों ही अन्योन्य - परस्पर - आधारित -संबंधित है। अत: ईश्वर विषयक ज्ञान एवं श्रद्धा सही-सच्ची यथार्थ होगी तो धर्म विषयक ज्ञान-श्रद्धा भी यथार्थ सच्ची होगी। अन्यथा असंभव है। कहनेवालों ने जैन धर्म-दर्शन को अनीश्वरवादी कहकर नास्तिक भी कहा है। जैन ईश्वर को नहीं मानते हैं, ईश्वर निर्मित सृष्टि नहीं मानते हैं। अत: जैन नास्तिक हैं लेकिन यह कहां तक उचित हैं? ईश्वर और धर्म के जन्यजनकभाव संबंध, प्रवर्तक-निदर्शक आदि संबंध के आधारवाले नियमानुसार यदि जैन धर्म-दर्शन भी एक स्वतंत्र-धर्म-दर्शन है तो निश्चित ही जैन धर्म - दर्शन-मत प्रवर्तक - संस्थापक - उपदेशक - दर्शक - ईश्वर भी होने ही चाहिए। होंगे ही। तभी तो यह जैन धर्म - दर्शन अस्तित्व में आया है। इसका प्रचलन है। पिता-पुत्र की तरह। अन्यथा उपदेष्टा - द्रष्टा ईश्वर के अभाव में धर्म का अस्तित्व संभव ही नहीं होता। जैसे पिता के अभाव में पुत्र का अस्तित्व। जैन धर्म - दर्शन प्रागऐतिहासिक काल से, स्वतंत्र अस्तित्व रखे हुए हैं और अखंड परंपरा से चलता हुआ आज भी यथावत्-पूर्ववत् है फिर जैन मत में ईश्वर है ही नहीं, मानते ही नहीं है इत्यादि बातों का उद्भव ही कैसे संभव है? बिना प्रवर्तक - संस्थापक के अस्तित्व कैसा? अत: पुत्र के सद्भाव से जैसे पिता का अस्तित्व अनिवार्य रूप से माना जाता है ठीक उसी तरह जैन धर्म-दर्शन के सद्भाव से उसके प्रवर्तक - संस्थापक ईश्वर का अस्तित्व अनिवार्य रूप से सिद्ध होता ही है। अत: जैन धर्म-दर्शन या मत को अनीश्वरवादी कहकर नास्तिक कहना मूर्खता होगी। किसी भी परिस्थिति में कहना उचित नहीं है, संभव नहीं है। अत: जैन धर्म-दर्शन आस्तिक ही है। ईश्वरवादी, ईश्वरमान्यतावाला आस्तिक है। सम्यग्-यथार्थ है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि प्रागऐतिहासिक काल से सर्वत्र पृथ्वीतल पर हजारों - लाखों