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________________ मेरी ऑटोग्राफ बुक में लिखकर दिया, "भारतवर्ष से भी पुराना यह हिमालय, युग-युगान्तर से अपने वक्तृत्वपूर्ण मौन के द्वारा देश-देशान्तर के बच्चों को निमंत्रण देता है, और उनकी मीठी-मीठी बातों से खुश होता है। हमारे लिए जो काल अनंत है, वह उसके लिए गतदिवस के समान है। उसके मौन में वात्सल्य है, गांभीर्य है, प्रसन्नता है, और समाधि की अलिप्तता भी है। लेकिन सर्वोपरि है उसका सबके लिए मनातन वात्सल्य, जो उसके वृक्ष और बादलों में हमेशा प्रतीत होता है।" -काका के सप्रेम शुभाशिष १२-६-६८, मसूरी काकासाहेब के भी मौन में वात्सल्य, गांभीर्य, प्रसन्नता और समाधि की अलिप्तता के दर्शन होते हैं, लेकिन सर्वोपरि है, आपका सबके लिए सनातन वात्सल्य, जो आपकी आंखों में झलकता होता है । ऐसा लगता है, मानो उन्होंने हिमालय को अपने जीवन के साथ संपूर्ण रूप से मिला लिया है। 'हिमालय की यात्रा' पुस्तक में उन्होंने लिखा है, 'हिमालय का वैभव दुनिया के तमाम सम्राटों के समस्त वैभव से भी बढ़कर है। हिमालय वही हमारा महादेव है, सारे विश्व की समृद्धि को आबाद करते हुए भी अलिप्त, विरक्त, शांत और ध्यानस्थ हिमालय जाकर उसे ही हृदय में ध्यानस्थ कर लेने की जिसकी शक्ति हो, उसने ही जीवन पर विजय पायी। ऐसे को अनंत प्रणाम ।" सचमुच, काकासाहेब ने हिमालय जाकर उसे अपने हृदय में ध्यानस्थ कर लिया है और अपने जीवन पर विजय पायी है। जिस प्रकार हिमालय का वैभव अपार है, उसी प्रकार काकासाहेब का ज्ञान भी अपार है। जिसके पास ज्ञान ग्रहण करने की शक्ति और इच्छा है, वह कभी काकासाहेब के पास से खाली हाथ लौट नहीं सकता। और आश्चर्य तो इस बात का है कि बिना पूछे ही आपकी ज्ञान-पिपासा के विषय को काकासाहेब जान जाते हैं, और आपको यथेष्ट ज्ञान देकर संतुष्ट करते हैं। मैं तो हिमालय की पगली हूं। हिमशिखरों के सामने घंटों देखती रहती हूं ! उस समय तो पता नहीं चलता कि क्या पाया? लेकिन जब वापस लौटती हूं, तब अवश्य अनुभव करती हूं कि मैंने कुछ पाया है, जिसे शब्दों में बताया नहीं जा सकता। ठीक वैसा ही अनुभव जब मैं काकासाहेब से मिलती हं तब होता है। चाहे मुझे उनसे बात करने का सुयोग ही न मिले, उनके दर्शन मात्र ही हों, तब भी मैं उनसे अवश्य कुछ पाती हूं। अगर एक ही शब्द में कहा जाय, तो हिमालय और काकासाहेब से मैं जो पाती हैं, वह है आत्मानंद ! भला. आत्मानंद का कभी शब्दों में वर्णन किया जा सकता है ? यह तो स्वानुभव की बात है । जिसने अनुभव किया, उसने समझ लिया। काकासाहेब को मैं एक और दृष्टि से देखती हूं। और वह है माता के रूप में ! पुरुष होते हुए भी उनमें मैंने माता के वात्सल्य-भाव का दर्शन किया है। मैं इतना तो दावे के साथ कह सकती हैं कि मैंने जो प्यार अपनी मां से पाया, वह आज तक कहीं से नहीं पाया । अगर पाया तो, हिमालय से, गंगा से और काकासाहेब से ! मां का प्यार कुछ अनोखा ही होता है। निःस्वार्थ प्रेम करनेवाले दुनिया में विरले ही मिलते हैं। उसी निःस्वार्थ प्रेम और वात्सल्य का दर्शन काकासाहेब के नेत्रों में होता है और इससे प्रेरित होकर, एक छोटे बालक की तरह, नि:संकोच उन्हें सब बात बताने को जी करता है। एक दशक के उनके सान्निध्य से मैंने उनसे बहुत आध्यात्मिक ज्ञान पाया, और उसी ज्ञान के सहारे मेरा जीवन ऊपर उठ रहा है। १४ वर्ष की आयु में किस-किस से उनका परिचय हुआ और किस-किस ने उनसे क्या पाया, यह बताना व्यक्तित्व : संस्मरण | ८६
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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