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________________ अनुभव होने लगा। हम दोनों भिन्न जाति के होने से ऋषि के परिवार में हमारे लग्न के निर्णय से विपरीत प्रत्याघात लम्बे अरसे तक होते रहे। उस समय पू० काकासाहेब ने बहुत ही स्पष्ट और ठोस भाषा में कहा था कि जिन दो व्यक्तियों की संस्कार-भूमिका समान हो, उनको मैं एक जाति का मानता हं। कितनी विशाल दृष्टि थी यह ! १९६४ में दोनों परिवारों ने मिलकर बड़े प्यार से हमारा लग्न संपन्न किया। फिर तीन साल हम दिल्ली रहे। उसी समय मुझे मेरे दादाजी के समीप रहने का अवसर मिला। 'सन्निधि' मेरा मायका बन गया। काकासाहेब, रेहानाबहन, और मेरी प्यारी सरोजमासी के पास जब भी मन चाहे, जितना भी मन चाहे, उतना रह सकती थी। बातें करके मन भर भी लूं और खाली भी कर लूं । वे सब हम दोनों को बड़े प्यार से बुलाते और लाड़-प्यार करते थे । स्वास्थ्य के विषय में पहले भी हमेशा चिन्ता रखते थे और अब तो मैं उनकी आंखों के सामने ही थी, फिर चिन्ता में क्या कमी रहती! उसके बाद तो कई साल हम परदेश में घूमते रहे। लेकिन जब भी घर आते थे और दादाजी से मिलने का अवसर मिलता था, तब सारा अस्तित्व एक अजीब आनन्द से नाच उठता था। उनसे मिलने की संभावना ही मेरे वर्षों के आवरणों को दूर करके मुझे उसी निर्दोष-सहज अनुभूति से भर देती थी, जबकि मैंने उनसे पहली बार पूछा था, "आप मुझे पत्र का उत्तर देंगे?" उनको पत्र तो मैं क्वचित ही लिखती हूं, पर उनका अत्यन्त वात्सल्यपूर्ण व्यक्तित्व सदा मेरे साथ रहता है, और मैं उनको अपने गतिशील जीवन की घटनाओं का, अनुभूतियों का मूक साक्षी बनाती रहती हैं। वही विशाल भालप्रदेश, वही वात्सल्यपूर्ण आंखें, श्वेत दाढ़ी में हमेशा लहराता हुआ उनका स्नेह मुझे निरंतर विश्वास दिलाता रहता है कि वे मुझे जरूर सुनते हैं। १६५६ के एक पत्र में अपनी वर्षगांठ के विषय में उन्होंने बहुत ही सुन्दर लिखा था, "हर साल इस दिन अपने व्यतीत जीवन पर अन्तर्मुख होकर विचार करता हूं, और बाकी रहे हुए वर्षों के लिए संकल्प करता हूं।...अन्तर्मुख होने का समय न मिला, उसका दुःख न हुआ। मेरे मन में अन्तर्मुख और बहिर्मुख-ऐसा भेद अब नहीं रहा है। कुदरत की भव्यता निहारता हूं, उसमें परमात्मा का दर्शन होता है। लोगों से मिलता हं, उनकी बातें सुनता हैं, उनकी परिस्थितियों का संशोधन करता हूं और उनकी परिस्थिति के विषय में जरूरी सलाह देता हूं--तब भी वह सब परमात्मा की सेवा के रूप में ही होता है। अपने आपको भूलकर इतनी सुन्दर सेवा होती हो और दर्शन होते हों तब अपना विशेष स्मरण करने से विशेष लाभ क्या हो सकता है ?" कसी उदात्त वृत्ति है मेरे दादाजी की? हमारे ऐसे दादाजी की ६४वीं वर्षगांठ के पावन अवसर पर हम सबकी ओर से अनेकानेक प्रणाम और उनके दीर्घतम तथा इष्टतम आयुष्य के लिए मंगल कामनाएं। व्यक्तित्व : संस्मरण | ६७
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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