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अगर मेरे हाथ में होता तो मैं ॐ का नाम 'प्रसन्न' रखता। तुम्हारी प्रसन्नता हमेशा के लिए कायम रहे और सभी के लिए वह सांसर्गिक हो जाए।
यही काका का शुभाशिष
(२)
कलकत्ता
चि. ओम्
वाह, क्या पत्न है ! गुस्सा, नाराजगी, अबोला (बोलचाल बन्द) और कुट्टी से पत्र की शुरुवात क्या कोई "सादर सविनय प्रणाम" से करता है ! रूठने की भी एक कला है। तुम्हारे जैसी संस्कारी और कला-कुशल लड़की को तो यह कला भी सांगोपांग हस्तगत ही नहीं, बल्कि स्वभावगत कर लेनी चाहिए। गुस्सा कैसे होना, रूसना कैसे, फिर जैसे कुछ हुआ ही नहीं था, यह सब सीखने के लिए एक अच्छा-सा साधन हो, इसलिए तो लड़कियां शादी करती हैं। तुम्हारे 'वे' तम्हें रूठने का मौका ही नहीं देते हैं, ऐसा लगता है।
पिछले महीने हम खुब घुमे । उत्कल प्रान्त के काफी सून्दर स्थान देखें। फिर अमृतलाल नाणावटी और मैं कुर्सियांग, दार्जिलिंग कालिम्पोंग, रंगपो आदि स्थानों पर गए। वहां हमने कांचनजंगा जैसा पहाड़ देखा। तीस्ता, रंगीत, बालासन, महानदी जैसी नदियां देखीं। इन सब दृश्यों का वर्णन मैं तुम्हें लिखता। लेकिन तुमने कुट्टी जो कर रखी है, इसलिए लेखनी को रोकना पड़ता है। क्या उपाय ! अब तो जब किसी मासिक पत्रिका में यह वर्णन निकलेगा, तभी तुम्हें पढ़ने को मिलेगा। नाणावटी वर्धा गए हैं, इसलिए मुझे खुद ही सब लिखना पड़ रहा है। इससे हाथ को रोकना पड़ता है।
हम मिलेंगे, तब सिनेमा की चर्चा जरूर करेंगे। अब मैं इस क्षेत्र में बिलकुल अनभिज्ञ नहीं रहा हूं। फिर भी मैं उसका मर्मज्ञ हूं, ऐसा मुझे नहीं लगता।
दो-तीन दिनों में हम आसाम की यात्रा को जाएंगे वहां १२-१४ दिन रहकर लौटेंगे। यहां एक कान्फरेन्स करनी है। फिर रांची लोटा, नागपुर होते हुए वापस वर्धा। तुम वर्धा कब आ रही हो? क्या अपने साथ अपने वहां का तोता लाओगी? या कह दोगी, "वर्धा में कौन से कम होते हैं, जो बाहर से लाने पड़े?" मैं इसके जवाब में इतना ही कहंगा कि वर्धा से जितने तोते बाहर जाते हैं, कम-से-कम उतने तो वापस मिलने चाहिए।
श्री रेहाना तैयबजी करांची गयी होंगी। चि० सरोजिनी फिलहाल बम्बई ही है । तुम्हारा वजन कितना है ? तुम्हारे पतिदेव को सप्रेम वंदेमातरम् और तुम्हें
काका के सप्रेम शभाशिष
पत्रावली | ३०३