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________________ आश्रम की सर्वधर्मी प्रार्थना पूरे भक्तिभाव से और सभान उत्साह से गाती हैं। और यह प्रतिदिन की प्रार्थना दो बार बोलने पर भी वह यांत्रिकन बन जाए उतनी 'हृदय की संस्कारिता और सिद्धि' उनके समान बहुत कम लोगों में पायी जाएगी। पू० गांधीजी का सहवास उन्हें सोलह बरस से कुछ ज्यादा मिला। अमतुस्सलाम बहन बापूजी की हुईं। तब उनकी उम्र पचीस साल की थी। तब से बापूजी के बलिदान सन् १९४८ तक कई कठिन काम उन्होंने कर दिखाये हैं। सिंध से बंगाल तक हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों को टालने और मिटाने के लिए उन्होंने अपने प्राण की बाजी लगाकर अनेक सत्याग्रह किये। आश्रम में गांधीजी के कुटुम्बी सेवक और अन्य साधकों से अमतुस्सलाम बहन ने इतनी आत्मीयता साधी कि वे पू० बा की बेटी से भी ज्यादा प्यारी बन गईं। आज उन्हीं पू० कस्तुरबा के नाम से एक विशाल संस्था वे चला रही हैं। उनकी यह 'कस्तूरबा सेवा मन्दिर' संस्था पंजाब के पांच जिलों में फैली हुई है। वहां खादी और ग्रामोद्योग, नयी तालीम, खेती, गोपालन, शान्तिसेना वगैरा आठ-दस प्रवृत्तियां पूरे जोश से चल रही हैं। केवल खादी की ही पैदाइश हर साल चौबीस लाख रुपये की है। और इस खादी की उत्पत्ति में सत्ताईस हजार से ज्यादा लोगों को कायमी काम और रोजी मिलती है। इन सारी प्रवृत्तियों का मुख्य केन्द्र पटियाले के पास राजपुरा में छियालीस एकड़ भूमि में बसा है। अभी-अभी दिल्ली में बीबीजी से मिलने का मौका मिला। बीबी अमतुस्सलाम के लिए दिल्ली में पू० गांधीजी की समाधि केवल पवित्र तीर्थधाम नहीं है, परन्तु बापू का सहवास पाने का और उनसे प्रेरणा और सलाह पाने का जीता-जागता स्थान है। बीबीजी अक्सर दिल्ली आया करती हैं और आती हैं तब अचूक बापू से मिलने राजघाट समाधि पर जाती हैं और वहां घंटे बिताती हैं। कभी तो सारी रात वहीं बैठी या पड़ी रहती हैं और सारा समय प्रार्थना में बिताती हैं। हम आश्रमवासी जब इकट्ठा होते हैं तो सुबह-शाम की प्रार्थनाएं करते हैं और उसी समय बापूजी के साथ आश्रम में की हुई प्रार्थनाओं का स्मरण करते हैं। इसमें भी मेरा अनुभव यह है कि आश्रम की प्रार्थना बोलते समय सर्व-धर्म-समभाव और तमाम प्राणियों के साथ विश्वात्मैक्यभाव अनुभव करने में अमतुस्सलाम बहन का सहवास सबसे प्राणवान और प्रेममय होता है। जो-जो संस्थाएं बीबीजी चलाती हैं उनकी रोज-ब-रोज की तफसीलें उनके ध्यान में रहती ही हैं। उन संस्थाओं में काम करनेवाले साथी और तालीम लेनेवाले विद्यार्थी, पुरुष तथा स्त्रियां, बढ़े और बच्चे, सब बीबीजी के मन अपने परिवार के ही लोग होते हैं। बीबीजी ने शादी नहीं की। ठेठ छुटपन से सुन्दर कपड़े और जेवर पहनने के प्रति एक नफरत-सी थी। सादा-से-सादा सेवामय पवित्र जीवन बिताने का उनका आग्रह होने पर भी कुछ संतों की तरह समाज से अलग होकर भक्तिमय मस्त जीवन बिताने में वे नहीं मानतीं। बीबीजी यानी एक विशाल गृहस्थाश्रम की माता। सेवा लेने में संकोच करेंगी लेकिन सेवा देने में उनका मातहृदय संतोष से खिल उठता है। उस दिन (६-५-७३) उनके साथ बैठकर बातें करने का ताजा मौका मिला। वह स्थान भी था दिल्ली की उत्तर रेलवे का केन्द्रीय अस्पताल । अपनी राजपुरा की संस्था में जो सुधार करना चाहती हैं उनकी तफसील में उतरते वह भूल गई कि खुद अस्पताल की मरीज हैं और विदा लेते समय हमने जो प्रार्थना की उसमें उनके सेवा-परायण, तेजस्वी भक्त-हृदय का साक्षात्कार होता था और उन्हीं के कारण पू० बा तथा बापू के सहवास का भी वहां हम अनुभव कर सके। अन्तिम समय 'आवजो', 'आवजो' की विदा लेते मैं तो प्रत्यक्ष गांधी आश्रम की तेजस्वी सर्वकल्याणकारी, अलिप्त, निडर मूर्ति का ही मानो दर्शन कर रहा था। २७८ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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