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है। लेकिन सच्चा और पूरा देशभक्त है। इसके हाथों हिन्दुस्तान का अकल्याण कभी नहीं होगा। इसके काम में हमसे हो सके उतनी सहायता हम दें। लेकिन इसका विरोध हम भी न करें ।'
दूरदर्शी लोकमान्य का यह अभिप्राय सुनकर गंगाधरराव प्रभावित हुए। उन्हीं के मुंह से मैंने यह अभिप्राय सुना। मैंने इसे कई बार प्रकाशित किया है और सचमुच तिलकजी ने और गांधीजी ने कभी भी एकदूसरे का विरोध नहीं किया। जहां तक हो सका एक-दूसरे का समर्थन ही किया और गंगाधरराव धीरे-धीरे गांधीजी के बन गये । '
१५ अगस्त १९६०
१. 'स्वराज्य संस्कृति के स ंतरी' से
दीनबन्धु से प्रथम परिचय
जब दीनबन्धु एंड्रयूज से प्रथम परिचय का स्मरण करता हूं तो मन में लज्जा छा जाती है।
हम शान्तिनिकेतन में थे। श्री गुरुदेव ( रवीन्द्रनाथ) के साहित्य से और स्वभाव से आकृष्ट होकर दीनबन्धु शान्तिनिकेतन को ही अपना पार्थिव एवं आध्यात्मिक घर बनाने की तैयारी कर रहे थे; अथवा कर चुके थे । १९१४ के दिन थे वे ।
हमने देखा कि रवि ठाकुर श्री एंड्रयूज की बहुत ही इज्जत करते थे और एंड्रयूज तो गुरुदेव के पागल भक्त के जैसे पेश आते थे। इन दोनों के ये प्रेम-प्रसंग देखकर हृदय हर्षोत्फुल्ल हो जाता था । श्री एंड्रयूज के साथ उनके मित्र पियरसन भी रहते थे। दोनों के स्नेह की घनिष्ठता भी हमारे आदर का विषय था । श्री पियरसन तो श्री एंड्रयूज से भी अधिक पारदर्शक थे, और विद्यार्थियों के मानो कंठमणि ही थे। एंड्रयूज पियरसन से अधिक प्रभावशाली थे, किन्तु पियरसन की तरह विद्यार्थियों के साथ घुल-मिल नहीं जाते थे ।
शान्तिनिकेतन की व्यवस्था - चर्चा में श्री एंड्रयूज और पियरसन पूरे दिल से शरीक होते थे। श्री एंड्रयूज की यह आदत थी कि वे चर्चा में बार-बार गुरुदेव के वचनों का हवाला दिया करते। हम लोगों को यह बुरा लगता । क्या हम लोग गुरुदेव को कम पहचानते हैं ! और अगर गुरुदेव के वचन से ही फैसला करना हो, तो फिर हम लोगों की प्रबन्ध समिति की जरूरत ही क्या रही ? हम लोगों की निजी बातचीत में श्री एंड यूज की अनेक विचित्रताओं की भी चर्चा होती थी। हम लोगों ने निश्चय किया कि ये एक बड़े प्रच्छन्न साम्राज्यवादी, "हिन्दुस्तान के हित की बातें तो बहुत करते हैं; लेकिन दिल से तो केवल इंग्लैंड का ही हित चाहते हैं । हमारे देश के सर्वश्रेष्ठ लोगों के पास ऐसे धूर्त लोगों को रखकर अंग्रेज सरकार अपना राज्य मजबूत करना चाहती है।" अंग्रेज सरकार और अंग्रेज व्यक्ति को शक की निगाह से देखना हमारी राष्ट्रीयता का सर्वप्रथम सिद्धान्त था ।
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श्री एंड्रयूज की मूर्ति सामने आते ही हमारे दिल की भलमनसाहत जाग्रत हो जाती थी; किन्तु उनके पीछे हम उन पर शंका ही करते थे जो शिक्षक श्री एंड्रयूज के साथ बहुत मीठी-मीठी बातें करते थे और बाद में उनके बारे में सब किस्म की शंका एं प्रकट करते थे, उनकी वृत्ति देखकर मैं हैरान हो जाता था । किन्तु मन में उनके प्रति प्रशंसा ही रहती थी क्योंकि हम मानते थे कि मायावी के साथ मायावी बनना ही उत्तम नीति
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