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________________ का प्रारम्भ किया। मेरे पिता समाज में ज्यादा घुलते-मिलते नहीं थे, इसलिए बड़े लोगों से जान-पहचान कम। ऐसे मुझको कौन अपना सकता था ? उन दिनों लोकमान्य तिलक की ओर से बम्बई में एक मराठी दैनिक 'राष्ट्रमत' शुरू हुआ। हम बड़े उत्साह से उसे पढ़ते थे। एक दिन मैंने एक लेख लिखकर सम्पादक के नाम भेजा। विश्वास था कि वे मेरा लेख लेंगे। दूसरे दिन बड़ी उत्कंठा से 'राष्ट्रमत' का अंक खरीदकर देखा । उसमें मेरा लेख नहीं था। दुःख तोहआ, लेकिन मेरे मन में अपने बारे में जो अभिप्रायः था वह दृढ़ हुआ कि इस दुनिया के लिए मैं हं ही नहीं। मेरा व्यक्तित्व इतना टेढ़ा-मेढ़ा है कि मेरी कहीं भी नहीं चलेगी। 'राष्ट्रमत' का अंक मैंने बाजू पर रख दिया और एल-एल० बी० की किताबें पढ़ने लगा। दो दिन के बाद कितना आश्चर्य ! मेरा ही लेख मेरे नाम के बिना थोड़े-से परिवर्तन के साथ राष्ट्रमत में अग्रलेख के रूप में दिया गया था और गंगाधरराव ने मुझे मिलने बुलाया था। उन दिनों राष्ट्रमत के वे सर्वेसर्वा थे। उन्होंने बड़े प्रेम से मेरे साथ बातचीत की। जीवन का उद्देश्य क्या है, क्या करना चाहता हूं आदि बातें पूछी और अपने साथ रहने के लिए ही बुलाया। और एल-एल० बी० की बात छोड़ देने की सलाह दी। मैं मान गया। राष्ट्रमत में उन्हीं के कमरे में रहने लगा। मुझे आनन्द और सन्तोष इस बात का हुआ कि मेरी सारी विचित्रता वे समझ सकते थे। उन्हें वह अखरती नहीं थी। इतना ही नहीं, कोई अपना अनुभवी साथी हो, इसी तरह मेरे साथ बातचीत करते थे, मेरी सलाह पूछते थे और गंभीरतापूर्वक चर्चा भी करते थे। कॉलेज के दिनों में कई क्रांतिकारी लोगों के साथ मेरा परिचय था ही। एक क्रांतिवादी नवयुवक के तौर पर ही गंगाधरराव मुझे पहचानते थे। उनके कमरे में जब क्रांतिकारी लोग आकर तरह-तरह की योजनाओं की चर्चा करते थे तब गुप्त बातें सुनने का अपना अधिकार नहीं, इस ख्याल से मैं कमरे के बाहर जाता था। लेकिन गंगाधरराव ने मुझे रोका और कहा, 'तुमपर मेरा पूरा विश्वास नहीं होता तो मैं तुम्हें अपने कमरे में रहने के लिए स्थान नहीं देता । हमारी कोई भी बात तुमसे छिपी हुई नहीं है।' मैंने कहा, 'आपके ऐसे विश्वास से मेरा जीवन धन्य हो गया, लेकिन मेरा सिद्धान्त है कि गुप्त बातों में आवश्यकता से अधिक चीजें सुनना या जान लेना अनावश्यक है, खतरनाक है। रहस्य-चीजें जान लेने का कौतूहल हरएक में होता है। वही क्रांतिकारी प्रवृत्तियों को खतरे में डालता है। और नाहक विनाश मोल लेता है।' गंगाधरराव ने कहा, 'तुम्हारी बात सही है किन्तु ऐसा समझने वाले नवयुवक हमारे दल में भी कम हैं।' मैंने कहा, 'हमारे नवयुवकों से मेरा जो परिचय है उसपर से कह सकता हूं कि बेजा कुतूहल के साथ कई लोगों में यह अदम्य इच्छा भी होती है कि लोगों को बता कि मैं एक बड़ा आदमी हूं, कई महत्त्व के रहस्य मैं जानता हं। चित्त की यह खुजली रोकना कई लोगों के लिए मुश्किल होता है।' एक दिन क्रांतिकारी नवयुवकों के दल के साथ बातचीत करते गंगाधरराव ने कहा कि हमारे नवयुवकों को अगर कुछ काम सौंपा तो उस काम की उनके पास से सही-सही रिपोर्ट हमें नहीं मिलती। अपनी गलतियां छिपाते हैं। वैसा करते घटनाओं के विवरण में परिवर्तन करते हैं। अपना रंग लगा देते हैं। इसलिए जो रिपोर्ट हमारे पास आती है उनमें सत्य कितना है, ढूढ़ना हमारे लिए मुश्किल होता है। अपवाद सिर्फ कालेलकर हैं। उनका सारा-का-सारा बयान सही-सही होता है। उनपर हम विश्वास रख सकते हैं।' उद्विग्न होकर गंगाधरराव ने आगे कहा, 'पुलिसवाले अपने अफसरों को जो रिपोर्ट देते हैं वह ज्यादा अच्छी होती है। सही-सही बातें लिख देने में उनकी प्रामाणिकता कुछ अच्छी होती है। _ 'अंग्रेजों के खिलाफ हम लड़ते हैं। अंग्रेज देश के दुश्मन हैं। उन्हें सौ दफे झूठ कहेंगे। वैसा करते न विचार : चुनी हुई रचनाएं | २६५
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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