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________________ अब रही मेरे स्वास्थ्य और दीर्घायु की बात। सबसे प्रथम कह दूं कि मैंने बीच-बीच में आसन-प्राणायाम आदि थोड़ी योगसाधना करके देखी है, किन्तु मैं उसका महत्त्व नहीं गिनता हूं। मैंने जो पैदल मुसाफिरी की उसका महत्त्व मुझे जरूर मान्य करना चाहिए। आश्रम में आने के बाद मैंने (पैदल नहीं) भारत के अन्यान्य प्रदेशों की और चारों खंड के अनेक देशों की मुसाफिरी की है। इसको मैं जरूर महत्त्व देता हूं। इसका कारण मैं कहूं तो आपको आश्चर्य होगा। मुसाफिरी करने से भिन्न-भिन्न वंश के और भिन्न-भिन्न संस्कृति के अनेक लोगों को मिलने से मेरा मानसिक यौवन कायम रहा। शरीर पर भी इसका असर हो सका। इससे भी अधिक महत्त्व मैं देता हूं अपनी आध्यात्मिक साधना को ___ जब मैं संयम की साधना करता था तब खान-पान के संयम के कई प्रयोग मैंने किये हैं। चार-चार, सात-सात दिन के उपवास, घी-दूध छोड़ देना, मसाला और नमक नहीं खाना इत्यादि; लेकिन ये सारे प्रयोग ही थे। बुद्ध भगवान का मध्यम मार्ग अच्छा लगा। और महात्माजी की साधना तो सर्वांग-सुन्दर साबित हुई। मुख्य बात है मेरी वेदान्त की साधना । एक बात बता दूं। हिमालय के दिनों में ही एक दफा मैंने हाथ में गंगाजल लेकर भगवान से प्रार्थना की, "मेरी साधना भले ही सन्त-साधना हो, किन्तु लोग मुझे सन्त मानें अथवा कहें, यह मैं नहीं चाहता, क्योंकि लोग सन्तों की पूजा करते हैं, उनकी दी हुई साधना नहीं चलाते। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे शिक्षा-शास्त्री मानें, तभी तो मेरी सेवा उग सकेगी।" मेरी मुख्य साधना है-वेदान्त के ध्यान की, खास तौर पर विश्वात्मैक्यभावना की। सबके साथ मैं ऐसा ऐक्य अनुभव करूं कि राग-द्वेष आप-ही-आप नरम हो जायें। जहां आत्मीयता है, वहां बुरे आदमी का भी द्वेष नहीं हो सकता । और जहां पूर्ण आत्मैक्य है, वहां हमसे किसी का आत्मिक अकल्याण भी नहीं हो सकता। न स्वयं मैं गिरूं, न किसी को गिरने में मददगार बनं । यही है आत्मैक्यभावना की स्थायी साधना। सब वंशों के, अनेक देशों के, अनेक धर्मी लोगों के प्रति आत्मीयता का सम्बन्ध सोचना, यही है विशुद्ध प्रेम की साधना। इस आत्ममैक्य की उत्कटता जब बढ़ती है, तब अहंता और ममता, राग और द्वेष नरम हो जाते हैं, आप पर भाव क्षीण होता है, इन्द्रिय-जय आसान बनता है। इसका असर आरोग्य पर बहुत अच्छा होता है। अन्न-पचन, नींद और शौच तीनों क्रियाएं सन्तोषजनक चलती हैं । स्वास्थ्य के लिए और क्या चाहिए? ऐसी साधना उत्कटता से किन्तु स्वाभाविकता से चलायी तो ऐसे आदमी को लोग आदर से चाहेंगे जरूर, किन्तु सन्त नहीं कहेंगे। सन्त और योगी बनना अच्छा है, किन्तु कहलाना अच्छा नहीं। दस अच्छे आदमी जैसे रहते हैं, वैसे रहने से साधना में कोई बाधा नहीं आती। और मुख्य बात एक शब्द में कह दूं, ऐसी उत्तम साधना भगवान की कृपा से ही चल सकती है। इसलिए सारा श्रेय उसी की कृपा को है। इस आरममा बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | २०१
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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