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नौकरशाही के आगे मैंने भी उदारता से हाथ बढ़ाया था, किन्तु यह उन्मत्त नौकरशाही केवल खुशामद ही चाहती है। उनके साथ सहकार करने में मेरी उंगलियां जली है। मेरे जैसा अनुभव आपको होगा, तब आप मुझसे भी आगे बढ़ेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है ।"
पूरे एक वर्ष तक देश का निरीक्षण करने के बाद गांधीजी ने भारत की राजनीति में प्रवेश किया। 'सरकार की मदद करनी चाहिए, सरकार ने हाथ बढ़ाया है, सो पकड़ना चाहिए,' इत्यादि ढंग से उन्होंने प्रारंभ किया, लेकिन देखते-ही-देखते उनकी तेजस्विता प्रकट होने लगी ।
एक दिन स्वर्गीय गोखले की 'सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी के सदस्यों से बापूजी ने कहा था, "मैं आपका आदमी हूं, आपका पुराना साथी, आपके बीच रहकर मैंने वहां के जाहिर जीवन में प्रवेश किया, लेकिन आज आप मेरे साथ नहीं हैं। जहाल गिने जानेवाले लोग ही मेरे आसपास एकत्र हुए हैं। ऐसा कैसे हुआ। यह आप सोचिए । राजनीति में आपको ज्यादा गहराई में उतरना चाहिए। आखिर तो हमें जनता को ऊपर उठाना है।" इत्यादि ।
देखने देखते बापूजी कांग्रेस के नेता हुए जनता में असाधारण जागृति आई सारा राष्ट्र बोलने लगा, सरकार को ललकारने लगा ।
गांधीजी अहिंसा में पूरा विश्वास करते थे किन्तु अहिंसा यानी अशक्ति नहीं। सारे देश का स्वभाव वे जानते थे । हमारी संस्कृति की तेजस्विता, जो 'अहिंसा' में सोई हुए है, वह जाग्रत की जा सकती है, जाग्रत करनी चाहिए, यह बात उन्होंने देश को समझाई |
एक दिन हिंसा में विश्वास करनेवाले क्रांतिकारी युवक इकट्ठे हुए थे। मैं गांधीजी के पक्ष का हो गया, इसका उन्हें आश्चर्य हो रहा था ! कई कहते होंगे, "कालेलकर धूर्त है। गांधीजी के साथ रहकर अहिंसा की बातें करने लगा है। इस तरह सरकार की नजर चुका रहा है । किन्तु अन्दर से तो वह अपना ही है । जैसे वह सरकार को बना रहा है, वैसे गांधीजी को भी भुलावे में डाल रहा है। सच्चे क्रांतिकारी ऐसे ही होने चाहिए।" ऐसे युवक एकत्र हुए थे। सब ये मेरे पुराने साथी हम सबने एकत्र होकर कितनी कितनी योजनाएं तैयार की थीं और अमल में लेना चाहते थे । मुझपर उनका पूरा विश्वास था । मैंने उनसे साफ-साफ कहा, "भाइयो, मैं आपका ही आदमी हूं। क्रांति में मेरा पूर्ण विश्वास है । लेकिन नये अनुभव से अब गांधीवादी हुआ हूं। मैं गांधीजी को फंसाता नहीं हूं । गांधीजी के विचार समझकर हृदय से मैंने उन्हें स्वीकार किया है । सरकार को ठगने के लिए मैंने अहिंसा ओढ़ नहीं ली है। यकीन होने पर ही मैं गांधीवादी हुआ हूं। अब
मेरी बात सुनिये :
"हम हिंसा में विश्वास करते थे, मुश्किल से हमने थोड़े शस्त्र एकत्र किये । बंगाल के हमारे भाइयों ने राजनैतिक हत्याएं कीं। परिणाम क्या आया ? सरकार को मौका मिल गया। सरकार ने प्रजा को कुचल देने में कोई कसर बाकी न रखी।
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"लोग हमारी कदर करते हैं। देशभक्ति को पूजते हैं। यदि हम संकट में पड़े तो अपने को बचाने के लिए कुछ जोखिम भी मोल लेते हैं । हमें गुप्तवास में रहना पड़े तो उसकी सहूलियत भी कर देते हैं । यह सारा सही है। किन्तु सामान्य प्रजा - विशाल प्रजा- हमारे रास्ते पर आनेवाली नहीं मार-काट या खून-खराबे का तत्व अपनी प्रजा में है ही नहीं उसे स्वभाव का ढीलापन कहें या संस्कृति की ऊंचाई कहें, स्वभाव तो स्वभाव है ही । उसी स्वभाव के अन्दर गांधीजी सांस्कृतिक महत्ता देखते हैं। इसलिए अपनी प्रजा की संस्कृति के अनुरूप हो ऐसा लड़ाई का नया तरीका उन्होंने खोजा है । वह मार्ग श्रेष्ठ हो या न हो, हमारी जनता के लिए वह अनुकूल है, इसीलिए मैं कहता हूं :
बढ़ते कदम जीवन-यात्रा / १७९