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________________ किस तरह दिया जा सकता है ? स्वयं अंग्रेजी सीखने के बाद ही ऐसा भाषण समझ में आ सकता है।" योगायोग से उसी समय गांधीजी वहां आए। पहले से तय नहीं था कि वे सभा में आएंगे। गांधीजी के आने पर केवल गुजराती जानने वालों की जान में जान आई। उन्होंने गांधीजी के सामने अपनी बात रखी। सारा भाषण मुद्रा लिखित तो था ही। बापूजी ने वह हाथ में लिया उसे देख गए और सारे भाषण में आए हुए विचार बापूजी ने अनुरूप शैली में सहज संक्षेप करके गुजराती में लोगों के सामने रख दिए और फिर अपना भाषण भी दिया। श्री नरसिंहराव खुश होकर कहने लगे, "अपना कितना भाग्य कि आज एक के बदले दो सुन्दर भाषाण हमें सुनने को मिले !" इस सारे प्रसंग को लेकर मैंने एक लेख लिखा था, "अंग्रेजी भाषा के सामने देशी भाषाएं कमजोर हैं, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है ।" इस विचार का मैं जोर-शोर से प्रचार करता था । मेरा कहना था कि अंग्रेज लोगों के पुरुषार्थ के कारण अंग्रेजी साहित्य समृद्ध है। दुनिया के सम्पूर्ण साहित्य जगत में सबसे आगे माना जाता है। उसके सामने अपनी देशी भाषा साहित्य-सम्पत्ति नहीं के बराबर है। लेकिन उसपर से अपनी भाषा की शक्ति ही कमजोर है, ऐसा क्यों मानना चाहिए ? संस्कारी प्रजा हो, और अपने ढंग से अपनी भाषा का विकास किया हो तो भाषा-शक्ति कम दर्जे की नहीं मानी जाती । भाषा-शक्ति और साहित्य-समृद्धि दोनों को अलग करने की शक्ति हममें होनी चाहिए और यदि हममें पुरुषार्थ हो, तो प्रजा की सेवा करते-करते अपने साहित्य को भी हम चाहें उतना समृद्ध बना सकते हैं। अंग्रेजी साहित्य की समृद्धि देखकर हमें उसके दास क्यों बनना चाहिए। अंग्रेजों के जितना ही पुरुषार्थ करने की महत्त्वाकांक्षा हममें क्यों प्रकट न हो ? एक महाराष्ट्रीय नया-नया गुजराती सीखता है और गुजरात की संस्कारिता के पक्ष में लिखता है, यह देखकर लोग खुश होने लगे, और उन्होंने मेरी साहित्य सेवा की जी भर कर कदर की । इसी अर्से में रवीन्द्रनाथ के स्वागत में, उनका परिचय देते मैंने एक लेख गुजराती में लिखा था। वही या मेरी कलम से लिखा हुआ सर्व प्रथम गुजराती लेख इससे पहले मैं मराठी में लिखता और आश्रमवासियों की मदद से उसका गुजराती कर लेता। १६ : 'नवजीवन' पूज्य बापूजी सन् १९१५ में भारत लौटे। उनके गुरु गोखले के कहने से एक वर्ष सारे देश में घूमकर उन्होंने मात्र निरीक्षण किया। तब तक किसी सार्वजनिक काम में भाग नहीं लिया, न कोई काम शुरू ही किया । केवल अपना आश्रम आरंभ करके उसमें उन्होंने पूरा ध्यान केन्द्रित किया । एक वर्ष के अन्त में उनको सार्वजनिक जीवन में खींचने का प्रयत्न किया श्री शंकर लाल बैंकर ने । बापूजी ने प्रथम 'यंग इंडिया' हाथ में लिया । उनका सिद्धान्त था कि नया अखबार निकालें तो उसके लिए नये वाचक उत्पन्न नहीं होते । पुराने अखबार के ग्राहक पुराना छोड़कर नया खरीदते हैं, इसलिए नया पत्र पुराने का प्रतिस्पर्धी बनता है। उससे तो कोई पुराना चलता हुआ अखबार हाथ में लेकर चलाना बेहतर है। उनका यह भी विचार होगा कि लोग पैसे देकर उसे खरीद लेंगे। उन्होंने यहां तक कहा कि यदि कोई विज्ञापन अत्यन्त महत्व का है तो जनता १७० | समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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