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हुआ था।
किन्तु पूराने धर्म-ग्रंथों पर से यह नहीं लगता कि देश-रक्षा के बारे में और राज्य-व्यवस्था के बारे में सामान्य जनता को अच्छी शिक्षा मिली हो। चाणक्य का अर्थशास्त्र, कामन्दकीय नीतिशास्त्र इत्यादि ग्रन्थ हमारे पास हैं। रामायण, महाभारत में भी राज्य-शासन और प्रजा-धर्म के बारे में विचार-विवरण मिलता है। जो है, सो अच्छा है, किन्तु देश की पूरी क्षत्रिय कौम को देश-रक्षा और देश-शासन के बारे में पूरी शिक्षा मिलती हो, ऐसा यकीन नहीं। इस बारे में जो साहित्य है, वह धर्म को ही नजर में रखकर लिखा गया है।
विदेशी आक्रमण के सामने सब राजा एकत्र होकर लड़ें और सारी प्रजा भी क्षात्र-धर्म को स्वीकार करे, इस तरह का उपदेश उत्कटता से दिया हुआ कहीं दिखाई नहीं देता। बहादुरी से लड़ना, शत्रु को पीठ नहीं दिखानी, इत्यादि उपदेश सफल हुए थे और क्षत्रिय लोग पूरे-पूरे बहादुर थे यह तो स्पष्ट है।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। इस किस्म के उपदेश से सारी क्षत्रिय कौम में बहादुरी का विकास हुआ था, जो आज भी है, किन्तु अपने इन क्षत्रियों ने विदेशियों का राज्य मजबूत करने में सहयोग दिया ही है। आज भी राजस्थान में क्षत्रिय जाति युद्ध में, और आपस में लड़ने में बहादुरी दिखाती है और उसी राजस्थान में ब्राह्मण-वैश्य जैसी जातियां जैन धर्म की अहिंसा का उत्कर्ष भी बताती हैं।
अब हमें असंख्य छोटी-छोटी जातियों का बन्धन तोड़कर, रोटी-बेटी व्यवहार की बिन जरूरी मर्यादाएं छोड़कर संसार-सुधार के आगे बढ़ना चाहिए। केवल राजनैतिक क्रान्ति करेंगे और सामाजिक जीवन में तो रूढ़िवादी रहेंगे, इस तरह की नीति चलाकर हमें कभी क्रान्ति में सफलता नहीं मिलेगी। ऐसे मेरे विचार हमारी गुप्त संस्था में मैं साथियों के सामने रखने लगा।
उस जमाने में हिन्दू-मुस्लिम एकता का सवाल हमारे मन में तीव्र हुआ नहीं था। शिवाजी के समय का महाराष्ट्र का इतिहास हम लोगों ने अभिमानपूर्वक पढ़ा हुआ था, इसलिए, "मुसलमान तो अपने विरोधी ही रहेंगे" ऐसे विचार मन में जोर करते थे। किन्तु इसलिए हिन्दू, खिस्ती, यहूदी, पारसी इत्यादि लोगों के साथ हमें मिलना-जुलना चाहिए, उनमें स्वराज्य के लिए फना होने की वृत्ति और एकता उत्पन्न करनी चाहिए
ल हिन्दुओं का संगठन करके तमाम गैर-हिन्दुओं को दूर रखकर किया हआ हमारा हिन्दू-संगठन आत्मघाती होगा। इस तरह के विचार का मैं प्रचार करता था। मैंने देखा कि सामान्य जनता में उत्कट देशभक्ति की कदर है, क्रान्तिकारी लोगों को, हो सके इतनी मदद कर देनी चाहिए, ऐसी भी लोगों की इच्छा है। कोई क्रान्तिकारी देशभक्त संकट में आ पड़ा हो तो उसे बचाने के लिए, सरकारी नजर से उसे छिपाने के लिए चाहे जैसा जोखिम मोल लेने अनेक लोग तैयार होते । गुलामी के प्रति तिरस्कार और आजादी के लिए उत्कट भक्ति की भावना लोगों में है। इतना होते हुए भी व्यवहार के सामने लोग हार जाते हैं। क्रान्तिकारी लोगों के साथ खुल्लम-खुल्ला मिलते वे डरते हैं और सारा समय व्यवहार में ही डूबे रहते हैं। स्वातंत्र्य प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय उत्थान चाहिए। लाखों लोगों में तेजस्विता का संचार होने की आवश्यकता है, ऐसा वातावरण तो तैयार हो सकता है। लेकिन विदेशी राज्य-व्यवस्था की पकड़ को पदच्युत करने के लिए जो राष्ट्रीय जोश जरूरी है, वह केवल हमारे गुप्त आन्दोलन से सिद्ध नहीं होगा।
गुप्त आन्दोलन करनेवाले अपने को गुप्त रखने की साधना भी साध नहीं सकते। स्वातन्त्र्य-प्राप्ति के लिए जो तैयारी चाहिए, उसका हजारवां तो क्या, लाखवां हिस्सा भी हम कर नहीं कर पाये हैं। तब आगे कैसे बढ़ सकें, इसकी चिन्ता लगभग निराशा की हद तक पहुंच गई थी। स्वामी विवेकानन्द का वेदान्त, रामकृष्णमिशन, डा० भगवानदास का सर्व-धर्म-अध्ययन, रवीन्द्रनाथ का काव्यमय जीवनतत्व-ज्ञान, लोकमान्य तिलक
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १३७